आज टीवी पर स्कूल के बच्चों को सफाई करते देखा तो अपना टाइम याद आ गया। मगर सफाई के बहाने कोई दूसरी बात ध्यान में आई। मैं 11 साल तक सरकारी स्कूल में पढ़ा हूं। हफ्ते में सिर्फ 1 पीरियड(35 मिनट का) होता था खेल का और उसमें भी हमसे स्कूल कैंपस की सफाई करवाई जाती थी। सफाई क्या, पेड़ों से गिरे पत्ते उठवाए जाते थे और घास उखड़वाई जाती थी।
स्कूल में खेल का माहौल तभी बनता था जब टूर्नमेंट आते थे। इससे पहले खेल-कूद का सामान सिर्फ स्टोर्स में रखा नजर आता था। पीटीआई और डीपी का काम मॉर्निंग असेंबली करवाना और स्कूल कैंपस में अनुशासन बनाए रखना था। इस वजह से उन्हें बच्चों को खेल-कूद के बारे में बताना का समय ही नहीं मिलता था।
अब सोचिए, जब स्कूलों में हफ्ते में सिर्फ एक पीरियड खेल के लिए दिया जाएगा और उसमें भी सफाई करवाई जाएगी या ग्राउंड में कहीं छाया पर शोर न मचाने की हिदायत के साथ बिठाकर रखा जाएगा तो खिलाड़ी कहां से पैदा होंगे? हम लोग खेलों में मेडल तो चाहते हैं, लेकिन स्कूलों में खेल-कूद को आज भी तवज्जो नहीं देते।
पुरानी कहावत है हिमाचली में- मुतरा मंझ मछियां नी मिलदी। इसलिए अगर इंटरनैशनल स्पोर्ट्स इवेंट्स में छाना है, तो स्कूलों में हर रोज स्पोर्ट्स का पीरियड होना चाहिए। भले ही एक-आध सब्जेक्ट कम करना पड़े या सिलेबस घटना पड़े।
हिमाचल प्रदेश में दलित बच्चों के साथ दुर्व्यवहार की शर्मनाक घटना ने हिलाकर रख दिया है। अमर उजाला ने शिमला से एक खबर छापी है कि किसी स्कूल में दलित बच्चों को अलग बिठाकर मिड-डे मील खिलाया गया। यही नहीं, सामान्य वर्ग के पैरंट्स भी स्कूलों में पहुंच गए और उन्होंने अपने बच्चों को अलग बिठाकर खाना खिलाया। उनका कहना था कि स्कूल के बाहर भी यही परंपरा है। गैर-जिम्मेदार अमर उजाला ने भी स्कूल का नाम तो नहीं दिया, मगर बच्चों की तस्वीर छाप दी।
मैं इस घटना से सन्न हूं। ऐसा भेदभाव बेहद शर्मनाक है। मासूम बच्चों के दिमाग पर कितना बुरा असर पड़ा होगा इस घटना का। सामान्य वर्ग के बच्चों के बाल मन में यह भावना घर कर गई होगी कि वे श्रेष्ठ हैं और बाकियों के साथ नहीं बैठना चाहिए। वहीं दलित परिवारों के बच्चों के मासूम दिल पर इसका जो असर हुआ होगा, उसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते।
स्कूल में ऐसी घटिया, बांटने वाली और शर्मनाक घटना को होने देने से बेहतर होता कि मिड-डे मील परोसा ही नहीं जाता। स्कूल के स्टाफ को भी अड़ जाना जाना चाहिए था कि या तो बच्चे साथ खाएंगे या फिर किसी को मिड-डे मील नहीं परोसा जाएगा। विभाग को सूचित किया जाना चाहिए था।
अरे ओ नालायको! अपने घर में जो करते हो करो, इस सोच को अपने घर की चारदीवारी के बाहर मत आने दो। विद्या के मंदिरों को तो बख्श दो। कैसे समाज का निर्माण करना चाह रहे हो आप? बहिष्कार तो इन चू**यों का किया जाना चाहिए, जिनकी अक्ल पर पत्थर पड़ गया है। भाड़ में जाएं ऐसी अगड़ी जातियां, जिनकी सोच पिछड़ी हुई है।
जानकारी मिली है कि जिन बच्चों ने स्कूल छोड़ा है, उनके घरों में द्यो(देवता की पालकी) हैं। इनके पैरंट्स देव परम्परा का हवाला देकर कह रहे हैं कि हमारे बच्चे 'अछूतों' के साथ नहीं बैठेंगे। ये लोग मन्दिरों में भी दलितों को आने नहीं देते न ही द्यो के पास। अगर कोई दलित गलती से ऐसा कर दे तो उससे कहते हैं- सट बकरा, द्यो नराज़ होई गेया(देव नाराज़ हैं, प्रसन्न करने के लिए बकरे की बलि दो)।
दलित के घर से आया बकरा इनके लिए अछूत नहीं, उसे देखकर तो लार टपकती है। देव परम्परा के नाम पर सदियों से ये लोग ऐसा ही करते आए हैं। चौहार घाटी के देवताओं के कारिंदे भी ऐसा ही करते हैं। हमारे यहां देवताओं को बहुत माना जाता है। लोगों का विश्वास है कि आज के युग में भी वे इंसानों से अपने पुजारी के जरिए बात करते हैं। लोगों को हिदायतें देते हैं, समस्याओं को दूर करते हैं। मगर ऐसे देवता अगर वाकई इस घटिया परम्परा को बनाए रखने के हिमायती हैं, तो मैं उन्हें ख़ारिज करता हूं।
जब हॉस्पिटल में जाते हो तो डॉक्टर की जाति पूछते हो, कभी सोचा है कि आपके कपड़े, दवाइयां, बिस्किट और अन्य पैक्ड आइटम्स किसने बनाई हैं? होटेल, रेस्तरां में खाना बना और परोस रहा है? तब कहां जाती है छूत-अछूत वाली बात। असल बात यह है कि गांव-पड़ोस में ही हीरो बन सकते हैं आप। किसी को नीचा दिखाकर अपनी झूठी शान जो बनाए रखनी है।
काश! अपने देश में भी ऐसी व्यवस्था होती कि निकम्मे पैरंट्स से उनके बच्चे छीन लिए जाएं और सरकार खुद उनकी परवरिश करे। मगर अफ़सोस! यहां तो अभी भुखमरी और कुपोषण दूर करने के लिए 'मिड डे मील' खिलाया जा रहा है। इस बार घर जाऊंगा तो चौहार घाटी के बड़े देवताओं से 'पूछ' लेने की कोशिश करूंगा कि इस जातिवाद पर उनका क्या रुख है।
स्कूल टाइम की एक मज़ेदार घटना बताता हूं। खबर आई थी कि कारगिल में पाकिस्तान ने घुसपैठ की है। मुझे एक कविता याद थी, जो हालात पर सटीक बैठ रही थी। अगले ही दिन मॉर्निंग असेम्बली में मैं वह कविता सुनाने लग गया। वह थी तो वीर रस की एकदम जोश भरी कविता, लेकिन मैंने महसूस किया कि स्टूडेंट्स ठहाके लगाकर हंस रहे थे।
कविता थी- लौट जा बर्बर लुटेरे लौट जा, मत लगा इस ओर फेरे लौट जा। जैसे-तैसे कविता ख़त्म की और हैरान होकर सोचने लग गया कि लोग आखिर हंस क्यों रहे थे। बाद में मालूम हुआ कि मेरे उच्चारण में एक बड़ी गलती थी। मैं 'ओ' और 'औ' को एक ही तरह से पढ़ता था।
तो मैं मंच से लोगों को सुना रहा था- लोट जा बर्बर लुटेरे लोट जा, मत लगा इस ओर फेरे लोट जा ज़रा लुटेरे को ज़मीन पर लोटकर पलटियां खाते इमैजिन कीजिए।
Humans of New York वाले फटॉग्रफर ब्रैंडन स्टैंटन पिछले दिनों भारत यात्रा पर आए थे। वह हिमाचल प्रदेश भी आए थे और धर्मशाला में ठहरे थे। उन्होंने कुछ तस्वीरें भी शेयर की हैं, जिनमें से ज्यादातर तिब्बतियों की हैं। पेज पर आपको हिमाचल और हिमाचलियों को स्थापित करती कोई भी तस्वीर आपको नहीं मिलेगी।
आखिर क्या वजह रही इसकी? हालांकि ब्रैंडन पर सिलेक्टिव फोटोब्लॉगिंग के आरोप लगते रहे हैं। यानी वे दुनिया के आम आदमियों की सिर्फ वैसी ही तस्वीरें और बातचीत शेयर करते हैं, जो न्यू यॉर्क के लोगों को पसंद आएं। मगर क्या उस पॉइंट ऑफ व्यू से भी हम अपीलिंग नहीं हैं?
शायद नहीं। क्योंकि हमारे पास अपनी संस्कृति के नाम पर रह क्या गया है? हमारा खान-पान, बोल-चाल, रहन-सहन और पहनावा वगैरह सब बदल गया है। हम खुद अपनी पहचान खो चुके हैं। ऐसे में भीड़ में सिर्फ वे लोग ही नजर आते हैं, जो कुछ अलग हों। जैसे तिब्बती। पराये मुल्क में रह रहे है, लेकिन बहुत हद तक वैसे ही, जैसे तिब्बत में रहते थे।
हिमाचल, जो सांस्कृतिक रूप से बेहद समृद्ध था, आज गुम होता जा रहा है। बाहर से लोग यहां इसका सांस्कृतिक रंग देखने नहीं आते। वे तीन वजहों से आते हैं-
1. हनीमून या छुट्टियां मनाने के लिए
2. चरस और गांजा पीने के लिए
3. तिब्बती/बौद्ध परंपरा को समझने के लिए
अब कुछ किया भी नहीं जा सकता। जिस पथ पर हम आगे बढ़ चुके हैं, वहां से पीछे जाना संभव नहीं है।