मन में कई बातें हैं उमड़-घुमड़ रही हैं। भाव मचल रहे हैं अभिव्यक्त होने के लिए, शब्द बेचैन हैं वाक्यों में गुंथने के लिए, अंगुलियां बेचैन हैं की-बोर्ड पर थिरकने के लिए के लिए। लेकिन मन है कि स्थिर ही नहीं हो रहा। विचलित है बहुत...। ऑफिस में सब काम निपटाने के बाद एक कोना पकड़कर बैठा हूं। इधर-उधर भाग रहे मन को बांधने की कोशिश कर रहा हूं और लगातार लिखता जा रहा हूं।
दरअसल पिछले कुछ दिनों से हालात पक्ष में नहीं है। कुछ खुद की लापरवाही समझिए और कुछ किस्मत की मार। नकारात्मकता के दौर से बाहर निकलने की कोशिश में जुटा हूं। मुझे अपने परिश्रम का मनवांछित परिणाम तो कभी भी नहीं मिला लेकिन पिछले दिनों तो और भी बुरा हुआ। जो भी काम किया, किसी का कोई फल नहीं मिला। यहां तक कि एक साल की अथक मेहनत का परिणाम ये निकला ही लाभ मिलने के बजाए नुकसान ही हो गया। आज मैं वहीं खड़ा हूं जहां आज से ठीक एक साल पहले खड़ा था। शायद उससे भी एक कदम पीछे ही हूं।
कष्ट इस बात का है कि एक साल की मेहनत शून्य हो गई। फिर भी दार्शनिक बनने की कोशिश कर रहा हूं। मन में नए-नए प्रेरणादायक विचार उठ रहे हैं और पल दो पल के लिए उत्साहित कर रहे हैं। लेकिन फिर थोड़ी देर बात जब वस्तु स्थिती का आभास होता है तो बात वहीं पहुंच जाती है। यूं तो मैं दूसरों से खुद की तुलना नहीं करता, लेकिन वक्त मुझे विवश कर रहा है कि मैं ऐसा करूं। और जब-जब ऐसा करता हूं तो और अवसाद से भर जाता हूं। इसलिए नहीं कि मेरी हस्ती में कोई कमी है या मैं उनसे कमतर हूं। इसलिए कि......... खैर छोड़ो...। कहूंगा तो लोग इसे मेरी कुंठा कहेंगे।
शायद हर व्यक्ति खुद को विशिष्ट समझता है। दूसरों की बात क्या करूं, मैं तो खुद को समझता ही हूं। और यही विशिष्ट होने का भ्रम मेरी परेशानी का कारण भी है। अवसाद से वही भरता है तो बड़े ख्वाब देखता है। आशातीत सफलता न मिलने से परेशान वही होता है जिसके मन में सफलता प्राप्त करने की ललक होती है। जो सपने देखता है वही सपने टूटने पर दुखी होता है। क्षमा चाहता हूं, मैं उन लोगों में नहीं जो जीवन को जी लेने भर के लिए जीते हैं। मेरे कुछ ख्वाब हैं, स्वप्न हैं और कुछ लक्ष्य हैं। कुछ व्यक्तिगत और बहुत से सामाजिक। उन लक्ष्यों को पाना चाहता हूं मैं। अपने जीवन के परम उद्देश्य को हासिल करना चाहता हूं मैं।
कर्म करता हूं तो फल की इच्छा भी करता हूं। गीता के उस श्लोक को मैं नहीं मानता जिसे लोग सांत्वना देने के लिए गाया-सुनाया करते हैं। वह श्लोक अतार्किक है, उस वक्त भी अर्जुन को बरगलाया गया था। अगर श्री कृष्ण अर्जुन को फल की इच्छा किए बिना कर्म करने की शिक्षा दे रहे थे क्या उस कर्म के पीछे फल निहित नहीं था? क्या युद्ध करने और अपने बंधु-बांधवों का वध करने के उपरांत अर्जुन का राज्य की प्राप्ति नहीं होनी थी? उसी मकसद से तो वह कर्म (युद्ध) किया जा रहा था। दरअसल फल की इच्छा ही वह चीज़ है जो व्यक्ति को कर्म करने के लिए प्रेरित करती है। अगर ये इच्छा न हो तो भला कोई कर्म ही क्यों करे।
आज किन्ही शुभचिंतक ने कहा है कि लंबी कूद लगाने के लिए कुछ कदम पीछे भी हटना पड़ता है। सुनने में अच्छा लगा और संतोष मिला। इस वाक्य को सुनकर उत्साह से भरा हूं। देखता हूं इस बात का प्रभाव कब तक रहता है और कब तक तनाव से मु्क्ति दिला पाता है।
दरअसल पिछले कुछ दिनों से हालात पक्ष में नहीं है। कुछ खुद की लापरवाही समझिए और कुछ किस्मत की मार। नकारात्मकता के दौर से बाहर निकलने की कोशिश में जुटा हूं। मुझे अपने परिश्रम का मनवांछित परिणाम तो कभी भी नहीं मिला लेकिन पिछले दिनों तो और भी बुरा हुआ। जो भी काम किया, किसी का कोई फल नहीं मिला। यहां तक कि एक साल की अथक मेहनत का परिणाम ये निकला ही लाभ मिलने के बजाए नुकसान ही हो गया। आज मैं वहीं खड़ा हूं जहां आज से ठीक एक साल पहले खड़ा था। शायद उससे भी एक कदम पीछे ही हूं।
कष्ट इस बात का है कि एक साल की मेहनत शून्य हो गई। फिर भी दार्शनिक बनने की कोशिश कर रहा हूं। मन में नए-नए प्रेरणादायक विचार उठ रहे हैं और पल दो पल के लिए उत्साहित कर रहे हैं। लेकिन फिर थोड़ी देर बात जब वस्तु स्थिती का आभास होता है तो बात वहीं पहुंच जाती है। यूं तो मैं दूसरों से खुद की तुलना नहीं करता, लेकिन वक्त मुझे विवश कर रहा है कि मैं ऐसा करूं। और जब-जब ऐसा करता हूं तो और अवसाद से भर जाता हूं। इसलिए नहीं कि मेरी हस्ती में कोई कमी है या मैं उनसे कमतर हूं। इसलिए कि......... खैर छोड़ो...। कहूंगा तो लोग इसे मेरी कुंठा कहेंगे।
शायद हर व्यक्ति खुद को विशिष्ट समझता है। दूसरों की बात क्या करूं, मैं तो खुद को समझता ही हूं। और यही विशिष्ट होने का भ्रम मेरी परेशानी का कारण भी है। अवसाद से वही भरता है तो बड़े ख्वाब देखता है। आशातीत सफलता न मिलने से परेशान वही होता है जिसके मन में सफलता प्राप्त करने की ललक होती है। जो सपने देखता है वही सपने टूटने पर दुखी होता है। क्षमा चाहता हूं, मैं उन लोगों में नहीं जो जीवन को जी लेने भर के लिए जीते हैं। मेरे कुछ ख्वाब हैं, स्वप्न हैं और कुछ लक्ष्य हैं। कुछ व्यक्तिगत और बहुत से सामाजिक। उन लक्ष्यों को पाना चाहता हूं मैं। अपने जीवन के परम उद्देश्य को हासिल करना चाहता हूं मैं।
कर्म करता हूं तो फल की इच्छा भी करता हूं। गीता के उस श्लोक को मैं नहीं मानता जिसे लोग सांत्वना देने के लिए गाया-सुनाया करते हैं। वह श्लोक अतार्किक है, उस वक्त भी अर्जुन को बरगलाया गया था। अगर श्री कृष्ण अर्जुन को फल की इच्छा किए बिना कर्म करने की शिक्षा दे रहे थे क्या उस कर्म के पीछे फल निहित नहीं था? क्या युद्ध करने और अपने बंधु-बांधवों का वध करने के उपरांत अर्जुन का राज्य की प्राप्ति नहीं होनी थी? उसी मकसद से तो वह कर्म (युद्ध) किया जा रहा था। दरअसल फल की इच्छा ही वह चीज़ है जो व्यक्ति को कर्म करने के लिए प्रेरित करती है। अगर ये इच्छा न हो तो भला कोई कर्म ही क्यों करे।
आज किन्ही शुभचिंतक ने कहा है कि लंबी कूद लगाने के लिए कुछ कदम पीछे भी हटना पड़ता है। सुनने में अच्छा लगा और संतोष मिला। इस वाक्य को सुनकर उत्साह से भरा हूं। देखता हूं इस बात का प्रभाव कब तक रहता है और कब तक तनाव से मु्क्ति दिला पाता है।
विषम परिस्थितियों में उसी दृढ़ता और उत्साह के साथ काम करते रहना वाक़ई मुश्किल है। लेकिन कहीं सुना था कि "Tough times never last, but tough people do". इसलिए हिम्मत न हारिए, देर-सवेर फल भी मिलेगा ही।
गीता की आपने सही पड़ताल की है । इस अभियान को जारी रखिये
असामान्य परिस्थितियां असाधारण मनुष्यों के जीवन में ही आती हैं .. जितना संघर्ष उतना होगा .. व्यक्तित्व में उतना ही निखार आएगा !!
अवसाद से वही भरता है तो बड़े ख्वाब देखता है। आशातीत सफलता न मिलने से परेशान वही होता है जिसके मन में सफलता प्राप्त करने की ललक होती है। जो सपने देखता है वही सपने टूटने पर दुखी होता है। क्षमा चाहता हूं, मैं उन लोगों में नहीं जो जीवन को जी लेने भर के लिए जीते हैं। मेरे कुछ ख्वाब हैं, स्वप्न हैं और कुछ लक्ष्य हैं। कुछ व्यक्तिगत और बहुत से सामाजिक। उन लक्ष्यों को पाना चाहता हूं मैं। अपने जीवन के परम उद्देश्य को हासिल करना चाहता हूं मैं।
bahut hi khubsurat aur sahi baat kahi hai aapne aur sach maniye yahi meri bhi soch hai. aapke is lekh ko padkar mere man me ek nayi urja ka sanchar hua hai bahut bahut sadhuwad. likhte rahiye logo ke jeevan me urja ka sanchar karte rahiye.
भाई आपके लेख मे जिस प्रकार की उत्कृष्टता है....जो एक सटीक पं है...वो कबीले तारीफ है...
घोर निराशा से घिरा कोई इंसान अपने करूणा प्रधान भावों को कितनी सहजता और रचनात्मकता से लिपिबध कर सकता है ये मैं आज पढ़ रहा हूँ ...ईश्वर आपको शीघ्रा सफलता दिलवाएँ
बिलकुल सही कहा आपने। बिना फल की आशा के आज कौन कर्म करता है?
वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।
"मुझे अपने परिश्रम का मनवांछित परिणाम तो कभी भी नहीं मिला लेकिन पिछले दिनों तो और भी बुरा हुआ। जो भी काम किया, किसी का कोई फल नहीं मिला।"
ईश्वर हमेशा हमारे किये कर्मों का फ़ल अवश्य देता है और जब नही देता है तो हमें और भी खुश होना चाहिये क्योंकि वो कर्म उसके बैंक में सुरक्षित होते रहते हैं और आपको जितनी देर से मिलते हैं आपको चक्रवृद्धि ब्याज की दर से उतना ही फ़ायदा होता है. ईश्वर के बैंक में चक्रवृद्धि ब्याज का सिस्टम लागू होता है. अत: निराश ना हों. मुझे भी काफ़ी लंबे समय से कोई खास सफ़लता नही मिली है, पर मुझे पूरा विश्वास है कि एक दिन जरूर मिलेगी.
ऐसा लगता है कि आप निराश हो गये हैं। याद रखें निराश व्यक्ति कभी सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। गीता में श्री कृष्ण ने अर्जुन को बरगलाया नही था बल्कि उनमें ब्याप्त मोह को दूर किया था। फल का लालच तो दुर्योधन को था, अर्जुन को नहीं। आपके पास तो केवल कर्म ही हैं, ईमानदारी से निष्कपट रूप से अपने कर्म करें सफलता आपको अवश्य मिलेगी।
मैने एक बार एक किताब पढ़ी थी उसके मुताबिक, काम करते रहों और जितना आप काम करते हो उससे थोड़ा ज्यादा करों, आपको सफलता ज़रुर मिलेगी, लेकिन आज के वक्त में मै कहता हूं काम उतना करों जितना लोगों की नज़र में आये,वरना सिर्फ मौके की तलाश में रहों कि किस वक्त क्या काम करुं कि आगे के रास्ते खुल जाये। आगे बढ़ने के लिये वक्त पर सही काम करना बहुत ज़रुरी है, अभी आप परेशान है हो जाइये खूब होइये, क्योंकि अगर नहीं होंगे तो इस परेशानी के समय को काटने में दिक्कतें होंगी, बस इंतजार करियें तो सही मौके का उसके लिये काम करना ज़रुरी है
nice
its gud 2 pen down d negativities, it helps in removing their burden..
all d best..
भाई, आपका लेख पढ़ते हुए मुझे रह रह आर न जाने क्यों ऐसा लग रहा था की आप किसी आई टी कंपनी में हैं और इस साल आपका एप्रेसल नहीं हुआ है.. और आपके आस पास के लोग ज्यादा नहीं तो कम से कम ५-६ % तो पा ही गए हैं.
"शायद हर व्यक्ति खुद को विशिष्ट समझता है। दूसरों की बात क्या करूं, मैं तो खुद को समझता ही हूं। और यही विशिष्ट होने का भ्रम मेरी परेशानी का कारण भी है।"
आप अकेले नहीं है, ये बीमारी तो मुझे भी है.