धूमिल जी अंतिम कविता वाकई एक असाधारण रचना है। अगर इसका सरलार्थ करने लगें तो हर कोई इसका अलग अर्थ लेगा लेकिन इसका भावार्थ लगभग समान ही रहेगा। वास्तव में ये एक ऐसा रचना है जिसे महसूस किया जा सकता है। जो शायद धूमिल जी कहना चाह रहे हैं उसे आसानी से समझा जा सकता है। ये कविता सत्ता, शक्ति, जनता और शोषण आदि शब्दों के इर्ज-गिर्द घूमती नज़र आती है। लेकिन एक मित्र ने टिप्पणी कर बहुत सही बात कही है। उन्होंने कहा है कि कविता का सरलार्थ नहीं बल्कि गूढ़ार्थ तलाशा जाना चाहिए....। जैसा कि शशांक जी ने इक कविता का सरलार्थ किया था, इस बार समय जी गूढ़ार्थ सामने रख रहे हैं। उन्होंने जो टिप्पणी की है उसे यथावत पोस्ट कर रहा हूं।
हुज़ूरे-आला,
कविताओं के सरलार्थ नहीं गूढ़ार्थ ढूंढ़े जाने चाहिएं।
खासकर जब कोई गंभीर नाम इनसे जुडा हुआ होता है, क्योंकि तब ये सिर्फ़ लिखने के लिए नहीं लिख दी गयी होती हैं।
अगर आप इसके सरलार्थ के चक्कर में नहीं पडेंगे तो जैसा की आपने सही कहा है, इनमें हर बार नवीनता, नये अर्थ महसूस कर पाएंगे।
शशांक जी ने इसे बहुत ही सरलीकृत कर दिया है।
चलिए अभी के पाठ से जो अर्थ अभी उभर रहे है, उन्हें बताता हूं..
"शब्द किस तरह
कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए
आदमी को पढ़ो"
यहां ऐसा लगता है जैसे कि धूमिल जी शब्दों की बेहतरीन तरतीब वाले अर्थ से कविता को अलग करना चाह रहे हैं। शब्दों के कुछ समूह कैसे एक कविता में तब्दील हो जाते है? इस समूह में ऐसा क्या पैदा हो गया है कि वह एक कविता हो गयी है? शब्दों के जरिए हमारी संवेदनाओं की अभिव्यक्ति किस तरह हमारे सामाजिक सरोकारों से जुडती है और हमें विस्तार देती है और कविता बनती है, धूमिल जी शायद यही चाहते हैं कि इस परिवर्तन को देखा समझा जाए| अगली पंक्तियों में जो कहा गया है वह यह लगता है कि कविताओं से उलझते वक्त या कविता करते वक्त मनुष्य सिर्फ़ अक्षरों में ना उलझा रह जाए, इन अक्षरों के केन्द्र में आदमी और उससे जुडे सरोकार ही रहने चाहिए, और अक्षरों के बीच हमें भी यही देखना चाहिए कि उनके बीच आदमी कहां है? उसके सरोकार कहां हैं? धूमिल जी का आशय शायद यही था कि अक्षरों के बीच जो आदमी गिरा है (यानि कि वह केन्द्र में नहीं है, वह महत्वपूर्ण नहीं है) उसे ढूंढ़ा जाए और उसे पढा जाए न कि अक्षरों में उलझकर रह जाया जाए।
"क्या तुमने सुना कि यह
लोहे की आवाज़ है या
मिट्टी में गिरे हुए ख़ून
का रंग।"
यहां धूमिल जी बहुत दूर की यात्रा पर ले जा रहे हैं। अगर इतिहास से गुजरा जाए तो पता चलता है कि लोहे की खोज और उस पर नियंत्रण से सभ्यता के युग का आगा़ज़ होता है, उस सभ्यता का जब लोहे के शस्त्रों के दम पर राज्य का उदय होता है और इन्हीं के दम पर बहुसंख्यक श्रमशील आबादी को दबा कर रखा जाता है, उनका खून बहाया जाता है। धूमिल जी कहना चाहते हैं कि कविता किसके पक्ष में खडी है इसे समझा जाए, इसमें से आपको लोहे के हथियार की खनक और आवाज़ें सुनाई देती हैं या इसमें आपको जो इनके कारण खून बहकर मिट्टी में गिरा है उसका रंग दिखाई देता है, यानि कि कविता इनमें से किसके साथ खडी है और किसकी कसक को यह प्रतिध्वनित कर रही है।
"लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
घोड़े से पूछो
जिसके मुंह में लगाम है।"
यहां अब साफ़ दिखाई दे जाएगा कि धूमिल जी क्या कहना चाह रहे हैं।
लोहे का स्वाद यानी सत्ता के साधनों का असली स्वाद इन साधनों को तैयार कर रही शक्तियों से नहीं जाना जा सकता है, यह तो उन्हीं से जाना जा सकता है जो इन साधनों के दम पर गुलाम बनाए हुए हैं। जिस तरह कि घोडे को लोहे की नकेल के सहारे गुलाम बना कर उसे अपनी इच्छापूर्ति का वाइस बानाया हुआ है।
आदरणीय शशांक जी से निवेदन है कि कम से कम इतनी महत्वपूर्ण कविता और कवि को अवसाद्ग्रस्त होने का फ़तवा जारी ना करें।
-समय
लेखक समय नाम से लिखते हैं। उन्होंने मेरी पिछली पोस्ट पर यह टिप्पणी की थी। उनकी ज्ञानप्रद टिप्पणी ने इस कविता के अर्थ को काफी हद तक साफ कर दिया है। लोग समायाभाव का बहाना कर टिप्पणी करने से बचते हैं लेकिन उन्होंने कीमती समय निकाला और विस्तृत जानकारी दी, इसके लिए उनका बेहद आभारी हूं।
हुज़ूरे-आला,
कविताओं के सरलार्थ नहीं गूढ़ार्थ ढूंढ़े जाने चाहिएं।
खासकर जब कोई गंभीर नाम इनसे जुडा हुआ होता है, क्योंकि तब ये सिर्फ़ लिखने के लिए नहीं लिख दी गयी होती हैं।
अगर आप इसके सरलार्थ के चक्कर में नहीं पडेंगे तो जैसा की आपने सही कहा है, इनमें हर बार नवीनता, नये अर्थ महसूस कर पाएंगे।
शशांक जी ने इसे बहुत ही सरलीकृत कर दिया है।
चलिए अभी के पाठ से जो अर्थ अभी उभर रहे है, उन्हें बताता हूं..
"शब्द किस तरह
कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए
आदमी को पढ़ो"
यहां ऐसा लगता है जैसे कि धूमिल जी शब्दों की बेहतरीन तरतीब वाले अर्थ से कविता को अलग करना चाह रहे हैं। शब्दों के कुछ समूह कैसे एक कविता में तब्दील हो जाते है? इस समूह में ऐसा क्या पैदा हो गया है कि वह एक कविता हो गयी है? शब्दों के जरिए हमारी संवेदनाओं की अभिव्यक्ति किस तरह हमारे सामाजिक सरोकारों से जुडती है और हमें विस्तार देती है और कविता बनती है, धूमिल जी शायद यही चाहते हैं कि इस परिवर्तन को देखा समझा जाए| अगली पंक्तियों में जो कहा गया है वह यह लगता है कि कविताओं से उलझते वक्त या कविता करते वक्त मनुष्य सिर्फ़ अक्षरों में ना उलझा रह जाए, इन अक्षरों के केन्द्र में आदमी और उससे जुडे सरोकार ही रहने चाहिए, और अक्षरों के बीच हमें भी यही देखना चाहिए कि उनके बीच आदमी कहां है? उसके सरोकार कहां हैं? धूमिल जी का आशय शायद यही था कि अक्षरों के बीच जो आदमी गिरा है (यानि कि वह केन्द्र में नहीं है, वह महत्वपूर्ण नहीं है) उसे ढूंढ़ा जाए और उसे पढा जाए न कि अक्षरों में उलझकर रह जाया जाए।
"क्या तुमने सुना कि यह
लोहे की आवाज़ है या
मिट्टी में गिरे हुए ख़ून
का रंग।"
यहां धूमिल जी बहुत दूर की यात्रा पर ले जा रहे हैं। अगर इतिहास से गुजरा जाए तो पता चलता है कि लोहे की खोज और उस पर नियंत्रण से सभ्यता के युग का आगा़ज़ होता है, उस सभ्यता का जब लोहे के शस्त्रों के दम पर राज्य का उदय होता है और इन्हीं के दम पर बहुसंख्यक श्रमशील आबादी को दबा कर रखा जाता है, उनका खून बहाया जाता है। धूमिल जी कहना चाहते हैं कि कविता किसके पक्ष में खडी है इसे समझा जाए, इसमें से आपको लोहे के हथियार की खनक और आवाज़ें सुनाई देती हैं या इसमें आपको जो इनके कारण खून बहकर मिट्टी में गिरा है उसका रंग दिखाई देता है, यानि कि कविता इनमें से किसके साथ खडी है और किसकी कसक को यह प्रतिध्वनित कर रही है।
"लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
घोड़े से पूछो
जिसके मुंह में लगाम है।"
यहां अब साफ़ दिखाई दे जाएगा कि धूमिल जी क्या कहना चाह रहे हैं।
लोहे का स्वाद यानी सत्ता के साधनों का असली स्वाद इन साधनों को तैयार कर रही शक्तियों से नहीं जाना जा सकता है, यह तो उन्हीं से जाना जा सकता है जो इन साधनों के दम पर गुलाम बनाए हुए हैं। जिस तरह कि घोडे को लोहे की नकेल के सहारे गुलाम बना कर उसे अपनी इच्छापूर्ति का वाइस बानाया हुआ है।
आदरणीय शशांक जी से निवेदन है कि कम से कम इतनी महत्वपूर्ण कविता और कवि को अवसाद्ग्रस्त होने का फ़तवा जारी ना करें।
-समय
लेखक समय नाम से लिखते हैं। उन्होंने मेरी पिछली पोस्ट पर यह टिप्पणी की थी। उनकी ज्ञानप्रद टिप्पणी ने इस कविता के अर्थ को काफी हद तक साफ कर दिया है। लोग समायाभाव का बहाना कर टिप्पणी करने से बचते हैं लेकिन उन्होंने कीमती समय निकाला और विस्तृत जानकारी दी, इसके लिए उनका बेहद आभारी हूं।
bahut badhia...
धूमिल जी ये रचना वाकई उत्कृष्ठ है
वाह आदर्श बाबू,
आपने तो गरीब की टिप्पणी को ही पोस्ट बना दिया।
उत्तेजनावश वह टिप्प्णी लिख मारी थी, क्योंकि कहीं आहत हुआ था।
सोच रहा था आप पता नहीं कैसे लेंगे?
अब तसल्ली है. शुक्रिया!!
Itz a nice blog with with a very aesthetically designed layout. I read ur post on Himachali caps on Mohalla and left a long comment. It didn't get published . Why? I don't know. Therefore i have searched this blog of yours to convey my praise for writing a wonderfully informative article.
I simply adore hills ,but it is disappointing to see that no one except tourists write on Himachal in Hindi blog world. I have read a lot here on Uttranchal ,but very little on HP.
I request u to write more on HP--its culture, problems and politics as well.You will find good number of readers like me.
समय जी ने जो विचार रखें है उसे देखकर लगता है कि काफी हद तक वो सही है लेकिन एक बात जो इस कविता में छुपी हुई है कि यदि धूमिल जी ने इस कविता को लिखते वक्त क्या सोच रहे होंगे क्योंकि अक्सर होता क्या है कि कवितायें लिखी नहीं जाती पर बरबस यूंही कभी दिमाग में कोई सोच आती है भाव आता है शब्दों का जाल कविता बन जाता है समय जी ने जो गूढ़ आर्थ निकाला है उससे मैं संतुष्ठ हूं पर सही है पर क्यों धूमिल इस कविता के पहली चार पंक्तियों से अगली चार पंक्तियों के गूढ़ अर्थ से जुड़ती नज़र नही आ रही है क्योंकि शब्दों का गठन अलग हो सकता है चयन भी अलग हो सकता है पर अर्थ और भावार्थ अलग नहीं हो सकता क्यों कविता जब तक पहली चार पंक्तियों को अगली के ज़रियें नहीं समझाती तो उसे कविता नहीं कह सकते है समय जी के कविता भावार्थ से ये जुड़ाव कम ही दिखता है। कविता में जो कि बहुत ज़रुरी है वो ये कि शुरुआत से लेकर अंत तक शब्द चयन वाक्य का अर्थ अलग हो सकता है पर भावार्थ अलग नहीं हो सकता है।
आदरणीय शशांक जी,
आपने कुछ महत्वपूर्ण बिंदू उठाये हैं।
पहली जो उल्लेखनीय बात है वह कविता के शिल्प और कथ्य से संबंधित है
आप लगता है कविता के शिल्प के प्रति ज्यादा संवेदनशील हैं।
जिन मानव श्रेष्ठों के लिए कविता मानसिक शगल और व्यक्तिगत सरोकारों का वाइस होती है वहां आपका यह कहना सही है कि "कवितायें लिखी नहीं जाती पर बरबस यूंही कभी दिमाग में कोई सोच आती है भाव आता है शब्दों का जाल कविता बन जाता है", पर जिन मानव श्रेष्ठों के लिए कविता एक जिम्मेदारी का अहसास होती है, जिसे वे अपनी पूरी वैचारिक समझ के साथ एक परिवर्तन के हथियार की तरह प्रस्तुत करते है और अपनी संवेदनशीलता को व्याक्तिगत उंहापोहो से आगे ले जाकर उसे सामाजिक सरोकारों तक विस्तार देते हैं, उनके लिए कथ्य ज़्यादा महत्वपूर्ण होता है।
फिर कविता ऐसे ही उभरी अस्पष्ट सी सोच या आशु भावों की शब्दों की तुरत-फुरत शिल्पगत अभिव्यक्ति मात्र नहीं रह जाती, वरन शिल्प की सीमाओं के अन्दर और यदि जरूरी है तो इन सीमाओं को तोडकर भी अपनी बात को, निश्चित सोच को पुरजोर तरीके से रखने की कोशिश करती है।
इसीलिए हम देखते हैं कि जब कविता ने यह जिम्मेदारी महसूस की, वह छंद-बंद के पुराने शिल्पगत बंधंनों से मुक्त होकर सरल अतुकांत नयी कविता के रूप में सामने आई। अब कई महान साहित्यकार इसमें भी शिल्प की जकडन उलझा कर वापस इसे स्वांतसुखाय की ओर ले जाना चाहते हैं।
यह कहने का मतलब ये कतई नहीं हैं की शिल्प से कोई मतलब ही नहीं होता कविता का। शिल्प का उचित गठन, कथ्य को प्रभावशाली और अचूक बनाता है, परंतु किसी एक का अतिरेक कविता को कमजोर करता है। कथ्य कविता के सामाजिक सरोकारों और सौद्देशीयता को मुखर करता है और शिल्प इसके प्रभाव को।
आपने यह बिल्कुल सही पकडा है कि धूमिल जी की उक्त कविता में पंक्तियों के बीच जुडाव और निरंतरता की कमी खलती है। परंतु धूमिल जी का कविता शिल्प शब्दों की मितव्ययता पर टिका है, वे कम से कम शब्दों का प्रयोग करते हुए प्रतीकों और अभिव्यंजनाओं में अपने कथ्य को प्रस्तुत करते हैं और पाठक से एक गंभीर संवाद कायम करना चाहते हैं, जिसमें पाठक की चेतना को संस्कारित करने का, उसके मस्तिष्क का सचेत परिष्कार करने का उद्देश्य शामिल होता है।
जिन मनुष्य श्रेष्ठों का उद्देश्य यही होता है, वे इन कविताओं से गुजरकर इन्हें अपने व्यक्तित्व और समझ के विकास का जरिया बना सकते हैं, और जो मनुष्य सिर्फ़ मनोरंजन का एकान्तिक आनंद भोगने के लिए इन पर सरसरी नज़र डालते हैं उनके लिए ये कविताएं एक अबूझ पहेली बनकर रह जाती हैं या वे चलताऊ ढंग से इनकी तुरत-फुरत मनचाही व्याख्या कर अपनी तात्कालिक संतुष्टि प्राप्त कर लेते हैं।
और उक्त कविता के संदर्भ में एक और अंतिम बात। ऐसा कतई नहीं है कि यहां जुडाव और निरंतरता सिरे से ही गायब हो।
यह गरीब इस कविता से पहले नहीं गुजरा है, और ना ही इसके मूल पाठ के बारे में कुछ पता है कि यही पूरी कविता है या कुछ छूट गया है, फिर भी दोबारा देखने से जो लगा वो यह है कि पहली तीन पंक्तियों में वे शब्द और कविता की बात करते हैं, अगली दो पंक्तियों में कविता के सरोकारों के रूप में आदमी को केन्द्र में रखे जाने की बात करते हैं, फिर आगे की चार पंक्तियों में कौनसे आदमी को केन्द्र में रखा जाना है, किस आदमी का आपको पक्ष लेना है उनका जो मार रहे हैं या उनका जो मारे जा रहे हैं, आपकी संवेदनशीलता किस चीज़ पर द्रवित हो रही है। जाहिरा तौर पर यहां धूमिल आपके मन में मिट्टी और खून के रंग की चर्चा कर उसकी सिर्फ़ आवाज़ से तुलना कर हमें प्रेरित कर रहे हैं कि हम शोषितों के पक्ष को अपनी संवेदना से जोडें।
उसके आगे की चार पंक्तियों में धूमिल जी अब साफ़-साफ़ इशारा करते हैं आपकी आगे के क्रियाकलाप और व्यवहारों की दिशा क्या होनी चाहिए, अगर आप वाकई में उन लोगों का पक्ष चुनना चाह रहे हैं जो दमित और शोषित हैं तो आपको अपनी समझ और क्रियाशीलता का उत्स उन्हीं के बीच से खोजना होगा, वहीं आपको सही राह मिल पाएगी क्योंकि उनसे अलगाव के साथ, आपके पक्षपोषण की ईमानदारी कायम रहने के बाबजूद आपके वैचारिक और क्रियात्मक भटकाव की पूरी संभावनाएं हैं।
अरे वाह। दोबारा पढ़ने पर तो यह गरीब भी खुद अभिभूत हो उठा है कि इन आठ-दस पंक्तियों में तो साहित्य, उसके सरोकारों और क्रियाशीलता की सही दशा-दिशा का पूरा दर्शन छिपा हुआ था।
आदर्श जी और शशांक जी का अब मैं वाकई तहे-दिल से शुक्रिया करना चाहता हूं जिनकी कि जुंबिशों की वजह से इस खाकसार को अपनी चेतना के परिष्कार का अवसर मिला और वह अपनी समझ में काफ़ी-कुछ जोड पाया।
एक बार फिर शुक्रिया !!
समय सोच रहा है कि इस दृष्टिकोण को अपने ब्लॉग पर भी पेश कर दिया जाए।
समय को यह पूरी बहस अपने ब्लॉग पर पोस्ट करनी चाहिए। मुझे लगता है कि शशांक भाई की टिप्पणियों ने समय की समझ में इज़ाफा करने में वाकई मदद की है और उनके जरिए हम लोगों के लिए भी धूमिल की कविता और उसके निहितार्थ स्पष्ट हुए।