Aadarsh Rathore
धूमिल जी की अंतिम कविता पर शशांक जी और समय जी के मध्य हुआ संवाद एक आदर्श संवाद है। दोनों ने अपने पक्ष और विचारों को बहुत ही सरलता से रखा है। इस बहस में दोनों ने जो टिप्पणियां की हैं वह व्यापक अर्थ लिए हुए हैं। समय जी की हर बात बहुत गंभीर है। पता नहीं उनकी वास्तविक पहचान क्या है लेकिन एक बात तो तय है कि वह समय की तरह की सक्षम और अपनी बात को पुष्ट तर्कों से मनवाने की क्षमता रखते हैं। उनकी टिप्पणियां खुद में एक संपूर्ण आलेख हैं। शशांक और समय के मध्य हुए वार्तालाप को एक पोस्ट के रूप में ही पेश किया जाना चाहिए। धूमिल जी की कालजयी कविता के बहाने वास्तव में दर्शन के ऊपर चर्चा हुई है। पेश है दोनों के मध्य हुआ संवाद.....

शशांक लिखते हैं.....

समय जी ने जो विचार रखें है उसे देखकर लगता है कि काफी हद तक वो सही है लेकिन एक बात जो इस कविता में छुपी हुई है कि यदि धूमिल जी ने इस कविता को लिखते वक्त क्या सोच रहे होंगे क्योंकि अक्सर होता क्या है कि कवितायें लिखी नहीं जाती पर बरबस यूंही कभी दिमाग में कोई सोच आती है भाव आता है शब्दों का जाल कविता बन जाता है समय जी ने जो गूढ़ आर्थ निकाला है उससे मैं संतुष्ठ हूं पर सही है पर क्यों धूमिल इस कविता के पहली चार पंक्तियों से अगली चार पंक्तियों के गूढ़ अर्थ से जुड़ती नज़र नही आ रही है क्योंकि शब्दों का गठन अलग हो सकता है चयन भी अलग हो सकता है पर अर्थ और भावार्थ अलग नहीं हो सकता क्यों कविता जब तक पहली चार पंक्तियों को अगली के ज़रियें नहीं समझाती तो उसे कविता नहीं कह सकते है समय जी के कविता भावार्थ से ये जुड़ाव कम ही दिखता है। कविता में जो कि बहुत ज़रुरी है वो ये कि शुरुआत से लेकर अंत तक शब्द चयन वाक्य का अर्थ अलग हो सकता है पर भावार्थ अलग नहीं हो सकता है।


वहीं इस पर समय जी ने कहा:

आदरणीय शशांक जी,
आपने कुछ महत्वपूर्ण बिंदू उठाये हैं।

पहली जो उल्लेखनीय बात है वह कविता के शिल्प और कथ्य से संबंधित है
आप लगता है कविता के शिल्प के प्रति ज्यादा संवेदनशील हैं।
जिन मानव श्रेष्ठों के लिए कविता मानसिक शगल और व्यक्तिगत सरोकारों का वाइस होती है वहां आपका यह कहना सही है कि "कवितायें लिखी नहीं जाती पर बरबस यूंही कभी दिमाग में कोई सोच आती है भाव आता है शब्दों का जाल कविता बन जाता है", पर जिन मानव श्रेष्ठों के लिए कविता एक जिम्मेदारी का अहसास होती है, जिसे वे अपनी पूरी वैचारिक समझ के साथ एक परिवर्तन के हथियार की तरह प्रस्तुत करते है और अपनी संवेदनशीलता को व्याक्तिगत उंहापोहो से आगे ले जाकर उसे सामाजिक सरोकारों तक विस्तार देते हैं, उनके लिए कथ्य ज़्यादा महत्वपूर्ण होता है।
फिर कविता ऐसे ही उभरी अस्पष्ट सी सोच या आशु भावों की शब्दों की तुरत-फुरत शिल्पगत अभिव्यक्ति मात्र नहीं रह जाती, वरन शिल्प की सीमाओं के अन्दर और यदि जरूरी है तो इन सीमाओं को तोडकर भी अपनी बात को, निश्चित सोच को पुरजोर तरीके से रखने की कोशिश करती है।
इसीलिए हम देखते हैं कि जब कविता ने यह जिम्मेदारी महसूस की, वह छंद-बंद के पुराने शिल्पगत बंधंनों से मुक्त होकर सरल अतुकांत नयी कविता के रूप में सामने आई। अब कई महान साहित्यकार इसमें भी शिल्प की जकडन उलझा कर वापस इसे स्वांतसुखाय की ओर ले जाना चाहते हैं।
यह कहने का मतलब ये कतई नहीं हैं की शिल्प से कोई मतलब ही नहीं होता कविता का। शिल्प का उचित गठन, कथ्य को प्रभावशाली और अचूक बनाता है, परंतु किसी एक का अतिरेक कविता को कमजोर करता है। कथ्य कविता के सामाजिक सरोकारों और सौद्देशीयता को मुखर करता है और शिल्प इसके प्रभाव को।

आपने यह बिल्कुल सही पकडा है कि धूमिल जी की उक्त कविता में पंक्तियों के बीच जुडाव और निरंतरता की कमी खलती है। परंतु धूमिल जी का कविता शिल्प शब्दों की मितव्ययता पर टिका है, वे कम से कम शब्दों का प्रयोग करते हुए प्रतीकों और अभिव्यंजनाओं में अपने कथ्य को प्रस्तुत करते हैं और पाठक से एक गंभीर संवाद कायम करना चाहते हैं, जिसमें पाठक की चेतना को संस्कारित करने का, उसके मस्तिष्क का सचेत परिष्कार करने का उद्देश्य शामिल होता है।
जिन मनुष्य श्रेष्ठों का उद्देश्य यही होता है, वे इन कविताओं से गुजरकर इन्हें अपने व्यक्तित्व और समझ के विकास का जरिया बना सकते हैं, और जो मनुष्य सिर्फ़ मनोरंजन का एकान्तिक आनंद भोगने के लिए इन पर सरसरी नज़र डालते हैं उनके लिए ये कविताएं एक अबूझ पहेली बनकर रह जाती हैं या वे चलताऊ ढंग से इनकी तुरत-फुरत मनचाही व्याख्या कर अपनी तात्कालिक संतुष्टि प्राप्त कर लेते हैं।

और उक्त कविता के संदर्भ में एक और अंतिम बात। ऐसा कतई नहीं है कि यहां जुडाव और निरंतरता सिरे से ही गायब हो।

यह गरीब इस कविता से पहले नहीं गुजरा है, और ना ही इसके मूल पाठ के बारे में कुछ पता है कि यही पूरी कविता है या कुछ छूट गया है, फिर भी दोबारा देखने से जो लगा वो यह है कि पहली तीन पंक्तियों में वे शब्द और कविता की बात करते हैं, अगली दो पंक्तियों में कविता के सरोकारों के रूप में आदमी को केन्द्र में रखे जाने की बात करते हैं, फिर आगे की चार पंक्तियों में कौनसे आदमी को केन्द्र में रखा जाना है, किस आदमी का आपको पक्ष लेना है उनका जो मार रहे हैं या उनका जो मारे जा रहे हैं, आपकी संवेदनशीलता किस चीज़ पर द्रवित हो रही है। जाहिरा तौर पर यहां धूमिल आपके मन में मिट्टी और खून के रंग की चर्चा कर उसकी सिर्फ़ आवाज़ से तुलना कर हमें प्रेरित कर रहे हैं कि हम शोषितों के पक्ष को अपनी संवेदना से जोडें।
उसके आगे की चार पंक्तियों में धूमिल जी अब साफ़-साफ़ इशारा करते हैं आपकी आगे के क्रियाकलाप और व्यवहारों की दिशा क्या होनी चाहिए, अगर आप वाकई में उन लोगों का पक्ष चुनना चाह रहे हैं जो दमित और शोषित हैं तो आपको अपनी समझ और क्रियाशीलता का उत्स उन्हीं के बीच से खोजना होगा, वहीं आपको सही राह मिल पाएगी क्योंकि उनसे अलगाव के साथ, आपके पक्षपोषण की ईमानदारी कायम रहने के बाबजूद आपके वैचारिक और क्रियात्मक भटकाव की पूरी संभावनाएं हैं।

अरे वाह। दोबारा पढ़ने पर तो यह गरीब भी खुद अभिभूत हो उठा है कि इन आठ-दस पंक्तियों में तो साहित्य, उसके सरोकारों और क्रियाशीलता की सही दशा-दिशा का पूरा दर्शन छिपा हुआ था।

आदर्श जी और शशांक जी का अब मैं वाकई तहे-दिल से शुक्रिया करना चाहता हूं जिनकी कि जुंबिशों की वजह से इस खाकसार को अपनी चेतना के परिष्कार का अवसर मिला और वह अपनी समझ में काफ़ी-कुछ जोड पाया।

एक बार फिर शुक्रिया !!



(महत्वपूर्ण बहस के लिए शशांक और समय दोनों का धन्यवाद)
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