ऑफिस से छुट्टी होते ही घर जाने के लिए बस पर चढ़ा। पूरी बस खचाखच भरी थी। भीड़ इतनी कि दम घुट जाए। हर दिन का यही आलम है। नोएडा सेक्टर 58 से साउथ दिल्ली जाने के लिए दो ही साधन हैं... या तो 323 रूट की बस पकड़ो या किसी कंपनी की कैब में लिफ्ट ले लो। 323 रुट वाली बसवालों की गुंडागर्दी के बारे में मैं पहले ही लिख चुका हूं। वो उन कैब्स वालों के शीशे तोड़ देते हैं जो सवारी बिठाते हैं।
कल जब मैं बस में बैठा तो बहुत थका हुआ था। सोचा कौन कैब का इंतजा़र करे... ये सोचकर सामने से आ रही बस पर सवार हो गया था। लेकिन बस वाले ने आउट ऑफ रूट जाकर बस को इधर उधर घुमाना शुरू किया। ज़रा सोचिए क्या हो जब आपको दिल्ली से मुंबई जाना हो और ट्रेन आपको पहले दिल्ली से कलकत्ता, फिर कलकत्ता से जयपुर, जयपुर से भोपाल और भोपाल से चेन्नई ले जाते हुए मुंबई पहुंचाए? ठीक ऐसा ही हुआ। मैंने विरोध करना चाहा तो कंडक्टर गाली-गलौच पर उतर आया। उसके साथ तो गुंडानुमा हेल्पर भी थे। मैंने खामोश रहने में भलाई समझी। बस में सवार 90 लोगों में अकेला भला मैंने ही ठेका ले रखा है क्या? फिर मैंने सोचा कि पुलिस में शिकायत करूं। लेकिन सोचा कि चलती बस में कैसे क्या करूं। इतना भी समय नहीं कि ताम-झाम में उलझ पड़ूं।
फिर बस वाले ने गलत रूट पर जाकर रजनीगंधा चौक से जाना चाहा। इतने में सामने से कंधे पर दो सितारों से सज्जित पुलिसकर्मी ने बस को रोका। मेरे चेहरे पर मुस्कान आई। इतनी खुशी हुई कि बयां नहीं कर सकचा। लगा कि अब इस बस वाले की शामत आई। पुलिसवाले को देखकर मेरे मुझे बहुत खुशी हुई। मैं इंतज़ार कर रहा था कि कब पुलिसवाला इसका चालान करे। मेरे मुंह से प्रसन्नता के मारे निकला... अब लगी न स*ले की .......
लेकिन ये क्या?....
कंडक्टर उतरा और उसने पुलिस वाले की मुट्ठी में कुछ छिपाते हुए थमाया। पुलिस वाला बिना कुछ कहे चला गया.....। मेरे आसपास खड़े लोग मुझ पर व्यंग्य भरी निगाहों से देखने लगे। मैं भी अपनी झेंप छिपाते हुए खिड़की से बाहर देखने लगा।
उस पुलिसवाले ने मेरी तंत्र पर बची रही सही आस्था को भी तार-तार कर दिया............
कल जब मैं बस में बैठा तो बहुत थका हुआ था। सोचा कौन कैब का इंतजा़र करे... ये सोचकर सामने से आ रही बस पर सवार हो गया था। लेकिन बस वाले ने आउट ऑफ रूट जाकर बस को इधर उधर घुमाना शुरू किया। ज़रा सोचिए क्या हो जब आपको दिल्ली से मुंबई जाना हो और ट्रेन आपको पहले दिल्ली से कलकत्ता, फिर कलकत्ता से जयपुर, जयपुर से भोपाल और भोपाल से चेन्नई ले जाते हुए मुंबई पहुंचाए? ठीक ऐसा ही हुआ। मैंने विरोध करना चाहा तो कंडक्टर गाली-गलौच पर उतर आया। उसके साथ तो गुंडानुमा हेल्पर भी थे। मैंने खामोश रहने में भलाई समझी। बस में सवार 90 लोगों में अकेला भला मैंने ही ठेका ले रखा है क्या? फिर मैंने सोचा कि पुलिस में शिकायत करूं। लेकिन सोचा कि चलती बस में कैसे क्या करूं। इतना भी समय नहीं कि ताम-झाम में उलझ पड़ूं।
फिर बस वाले ने गलत रूट पर जाकर रजनीगंधा चौक से जाना चाहा। इतने में सामने से कंधे पर दो सितारों से सज्जित पुलिसकर्मी ने बस को रोका। मेरे चेहरे पर मुस्कान आई। इतनी खुशी हुई कि बयां नहीं कर सकचा। लगा कि अब इस बस वाले की शामत आई। पुलिसवाले को देखकर मेरे मुझे बहुत खुशी हुई। मैं इंतज़ार कर रहा था कि कब पुलिसवाला इसका चालान करे। मेरे मुंह से प्रसन्नता के मारे निकला... अब लगी न स*ले की .......
लेकिन ये क्या?....
कंडक्टर उतरा और उसने पुलिस वाले की मुट्ठी में कुछ छिपाते हुए थमाया। पुलिस वाला बिना कुछ कहे चला गया.....। मेरे आसपास खड़े लोग मुझ पर व्यंग्य भरी निगाहों से देखने लगे। मैं भी अपनी झेंप छिपाते हुए खिड़की से बाहर देखने लगा।
उस पुलिसवाले ने मेरी तंत्र पर बची रही सही आस्था को भी तार-तार कर दिया............
अच्छा वाक्य सुनाया है .....बहुत खूब
कोई कार वाला मोटा मुर्गा होता तो उसे सता-सता कर हलाल करता पुलिस वाला।ये सब अब रोज़मर्रा मे शामिल हो गया है।गुस्सा तो बहुत आता है मगर कितना लड़े और किस-किस से लड़े।
आपने इस घटना के बहाने हमारे समाज में फ़ैल चुके एक गंभीर बीमारी की ओर ध्यान दिलाया है. दरअसल आज हम जिस तंत्र में जी रहे हैं वह समाज के सज्जनों की निष्क्रियता और शुतुरमुर्गी नीति का ही परिणाम है. भले लोग विवाद में पड़ने के बजाए या अपने अधिकार के लिए लड़ने के बजाए दुर्जनों के सामने समर्पण कर उन्हें बढावा देते हैं. मैं आपके जज्बे की दाद देता हूँ कि आपने विरोध करने की कोशिश तो की, परन्तु बस में बैठे अन्य लोगो ने तो आपका साथ देना भी जरूरी नहीं समझा. बल्कि आजकल तो आवाज उठाने वाले को लोग सरफिरा भी समझते हैं. ऐसे समाज में कभी सुधार आ सकेगा इसकी आशा भी धूमिल होती जा रही है.
logon ki samvednayen hi smapt ho gayee hain agar apke sath do char log khade ho jete to uski manmani nahin chalti jab log chupchap seh rahe hain to unka hausle badh raha hai
आदर्श...जीवन की कड़वी सच्चाईयां इससे भी तीखी हैं....आपने जिस बानगी का जिक्र किया है..वो तो बस एक नमूना भर है....पुलिस वाले किसी के नहीं..वो तो दो चार पांच...दस रुपए में बिकते हैं......अपने विश्वास को इतने सस्ते में मत टूटने दो.....
आज पूरा हिदुस्तान इस दर्द से कराह रहा है और नेता मुट्ठी में दर्द की दवा दबा कर सरक जाते है
वीनस केसरी
व्यवस्था में भ्रष्टाचार की शुरूआत तो पुलिसवालों से ही हुई है।
आज भ्रष्टाचार हमारे समाज और देश की रगो में इस कदर घर कर चुका है कि अगर हम चाहे तो भी इस मिटा नहीं सकते...