बाकी बातें बाद में, पहले ये तस्वीर देखें...
ये तस्वीरें हीरोइन या मॉडल्स की नहीं है, ये तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर अश्लीलता परोसने का आरोप लगाने वाले अखबारों की नंगी तस्वीर है। मानो या न मानो, ये तस्वीरें देश के अग्रणी अंग्रेजी के अखबारों और हाल ही में लॉन्च हुए टेबलॉयड्स से काटी गई हैं। देश के अग्रणी अखबारों ने टेब्लॉयड्स तो शुरु कर दिए लेकिन एक दूसरे को मात देने की होड़ में खुलेआम अश्लीलता परोसी जा रही है। बिग बॉस को लेकर अखबारों और खासकर इंग्लिश टेब्लॉयड्स ने तो खूब हो हल्ला मचाया। लेकिन कभी इनने अपने गिरेबान में झांक कर देखा है? इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर आरोप लगाया जाता है कि टीआरपी बटोरने के लिए वो उत्तेजक दृश्यों का सहारा लेते हैं, कभी किसी ने सवाल नहीं उठाया कि टीवी से ज्यादा अश्लीलता तो आज के समाचार-पत्रों में है। फोटो तो आप देख ही चुके हैं, क्या ये पुरुष मानसिकता को भुनाकर पाठकों की संख्या बढ़ाने का एक हथियार नहीं है? टीवी पर दिखाए जाने वाले उत्तेजक कमर्शियल्स को तो सामाजिकता की दुहाई देकर बैन कर दिया जाता है लेकिन अब भी प्रिंट पर आने वाले अश्लील विज्ञापनों को सेंसर क्यों नहीं किया जाता?
आपने गौर किया हो तो पता चलेगा कि इन तस्वीरों में एक भी तस्वीर किसी भारतीय मॉडल की नहीं है। यानि भारत में इस तरह की संस्कृति अब भी नहीं है। इस तरह की संस्कृति को तो थोपा जा रहा है। शुरु में अंग्रेजी के अखबार इसे दिखाएंगे, फिर हिन्दी के अखबार मोर्चा संभालेंगे और फिर हो गया देश का बंटाधार। मैं संस्कृति का ठेकेदार नहीं हूं, लेकिन मैं गलत बात की हमेशा से खिलाफत करता आया हूं। हमें दूसरों की संस्कृति से अच्छी चीज़ें ग्रहण करनी चाहिेए, लेकिन इस आज़ादी का मतलब ये नहीं कि कुछ भी आत्मसात कर लें। आप खुद से ईमानदारी से पूछिए कि क्या इस तरह के चित्र अश्लीलता की श्रेणी में नहीं आते? टीवी के लिए तो कंटेंट कोड लागू करने की बात कही जाती है लेकिन कभी किसी ने सोचा है कि सबसे ज्यादा ज़रूरत प्रिंट पर निगरानी रखने की है। प्रिंट तो टीवी से भी ज्यादा सशक्त माध्यम है।
मैं जानता हूं कुछ लोग अश्लीलता की परिभाषा बताने लगेंगे तो कुछ लोग मेरे इस फोटो को पोस्ट करने की नीयत पर सवाल खड़ा कर देंगे। लेकिन इन सब बातों से भी बढ़कर है इस गंदे चलन को रोकना। अश्लीलता कहीं भी नहीं होनी चाहिए, भले ही वह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो या फिर प्रिंट मीडिया।
कहां हैं वो समाज और संस्कृति के ठेकेदार जो टीवी पर संस्कृति का कबाड़ा करने का आरोप लगाते हैं?
(छायाचित्र के लिए सामग्री जुटाने के लिए नीरज वर्मा का विशेष धन्यवाद)
ये तस्वीरें हीरोइन या मॉडल्स की नहीं है, ये तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर अश्लीलता परोसने का आरोप लगाने वाले अखबारों की नंगी तस्वीर है। मानो या न मानो, ये तस्वीरें देश के अग्रणी अंग्रेजी के अखबारों और हाल ही में लॉन्च हुए टेबलॉयड्स से काटी गई हैं। देश के अग्रणी अखबारों ने टेब्लॉयड्स तो शुरु कर दिए लेकिन एक दूसरे को मात देने की होड़ में खुलेआम अश्लीलता परोसी जा रही है। बिग बॉस को लेकर अखबारों और खासकर इंग्लिश टेब्लॉयड्स ने तो खूब हो हल्ला मचाया। लेकिन कभी इनने अपने गिरेबान में झांक कर देखा है? इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर आरोप लगाया जाता है कि टीआरपी बटोरने के लिए वो उत्तेजक दृश्यों का सहारा लेते हैं, कभी किसी ने सवाल नहीं उठाया कि टीवी से ज्यादा अश्लीलता तो आज के समाचार-पत्रों में है। फोटो तो आप देख ही चुके हैं, क्या ये पुरुष मानसिकता को भुनाकर पाठकों की संख्या बढ़ाने का एक हथियार नहीं है? टीवी पर दिखाए जाने वाले उत्तेजक कमर्शियल्स को तो सामाजिकता की दुहाई देकर बैन कर दिया जाता है लेकिन अब भी प्रिंट पर आने वाले अश्लील विज्ञापनों को सेंसर क्यों नहीं किया जाता?
आपने गौर किया हो तो पता चलेगा कि इन तस्वीरों में एक भी तस्वीर किसी भारतीय मॉडल की नहीं है। यानि भारत में इस तरह की संस्कृति अब भी नहीं है। इस तरह की संस्कृति को तो थोपा जा रहा है। शुरु में अंग्रेजी के अखबार इसे दिखाएंगे, फिर हिन्दी के अखबार मोर्चा संभालेंगे और फिर हो गया देश का बंटाधार। मैं संस्कृति का ठेकेदार नहीं हूं, लेकिन मैं गलत बात की हमेशा से खिलाफत करता आया हूं। हमें दूसरों की संस्कृति से अच्छी चीज़ें ग्रहण करनी चाहिेए, लेकिन इस आज़ादी का मतलब ये नहीं कि कुछ भी आत्मसात कर लें। आप खुद से ईमानदारी से पूछिए कि क्या इस तरह के चित्र अश्लीलता की श्रेणी में नहीं आते? टीवी के लिए तो कंटेंट कोड लागू करने की बात कही जाती है लेकिन कभी किसी ने सोचा है कि सबसे ज्यादा ज़रूरत प्रिंट पर निगरानी रखने की है। प्रिंट तो टीवी से भी ज्यादा सशक्त माध्यम है।
मैं जानता हूं कुछ लोग अश्लीलता की परिभाषा बताने लगेंगे तो कुछ लोग मेरे इस फोटो को पोस्ट करने की नीयत पर सवाल खड़ा कर देंगे। लेकिन इन सब बातों से भी बढ़कर है इस गंदे चलन को रोकना। अश्लीलता कहीं भी नहीं होनी चाहिए, भले ही वह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो या फिर प्रिंट मीडिया।
कहां हैं वो समाज और संस्कृति के ठेकेदार जो टीवी पर संस्कृति का कबाड़ा करने का आरोप लगाते हैं?
(छायाचित्र के लिए सामग्री जुटाने के लिए नीरज वर्मा का विशेष धन्यवाद)
अश्लीलता बेचने वाले और पढने वाले दोनों ही गुनहगार हैं. जहाँ कुछ लोग इसे "खुलेपन" का नाम देते हैं, वहीं कुछ लोग इसे "ग्लैमर" भी कहते हैं. जो चीज आप अपने घर में बैठकर बीवी-बच्चों के साथ नहीं देख सकते वह न "खुलापन" है और न ही "ग्लैमर". उसे अश्लील ही कहा जायेगा.
आप टी०वी० को लेकर इतना गुस्साये क्यों हैं ? दोनों एक ही राग से रंजित हैं - टी०वी० या अखबार. प्रक्रिया भले ही कुछ अलग करा ले .
उल्लेख के लिये धन्यवाद.
जिन्हें नाज है हिंद पर वो कहां हैं?
लाहौल बिला कूबत. निश्चित तौर पर इन पर प्रतिबंध लगना चाहिए. जब ऐसा नहीं हो जाता, हम उस तरफ देखें ही क्यों?
दोस्त क्या ये सिलसिला रुकेगा ..., उम्मीद तो कम ही है। वैसे दोनों मीडियम मैं एक होड़ लगी है कौन किस्से आगे। आपने अपनी नाराजगी जाहिर की, अच्छा किया।
हम देखाना चाहेते है .........इसलिए वो दिखाते है.
अब तो मोबाइल में ब्लू फ़िल्म लोड करवा कर देखते/देखाते है.
फ़िर इन पर इतना गुस्सा क्यों ........
इन सब मैं पंजाब केसरी नम्बर वन है
सबका यही हाल है बिरादर ,बेचना उनका काम है .....कैसे भी बिके.....राज कपूर स्टाइल था ना ...द्रश्य की मांग.....या मनोज कुमार स्टाइल .सब चलता है बोले तो
सब हमारी ही गलती है, हम समीक्षा के लिए ही अखबार खरीदें, तो भी एक प्रति तो बढ़ ही जाती है... इसी प्रकार कुछ की समीक्षा और कुछ के मजे के लिए बिका अखबार रिकोर्ड कायम करता है, और फिर अगली बार पुनः वही नंगापन रीपीट किया जाता है, कुछ की समीक्षा के लिए, कुछ के मजे के लिए...
गुड... वैरी गुड। गुड जॉब डन।
सच्चाई ।
अच्छा िलखा है आपने ।
मैने अपने ब्लाग पर एक लेख िलखा है-आत्मिवश्वास के सहारे जीतें िजंदगी की जंग-समय हो तो पढें और प्रितिक्रया भी दें-
http://www.ashokvichar.blogspot.com
आपने गौर किया हो तो पता चलेगा कि इन तस्वीरों में एक भी तस्वीर किसी भारतीय मॉडल की नहीं है।
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मैक्सिम के लिये मिनिषा लांबा ने बिकिनी में पोज दिये हैं. किडनैप में उनका एक गाना भी बिकनी में है. धूम २ में बिपाशा जी बिकिनी में हैं. और तो और दीपिका पादुकोन समेत ढेरों भारतीय माडल्स और हीरोइने बिकिनी में किंगफ़िशर कैलेंडर जैसे अन्य कैलेंडरों में आ चुकी हैं.
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इस लेख में मैं ज्यादा कुछ कमेंट नही कर सकता हूं.
मैने बचपन से हीरो हिरोइनों को साथ में नाचते गाते देखा है आज भी मुझे ये सामान्य लगता है पर जिन्होने ये अपने जीवन के मध्यकाल में देखा है उन्हे दिक्कत हुई. इसी प्रकार जो लोग बिकिनी में औरतों को बचपन से देखते रहेंगे उन्हे इससे कोई फ़र्क नही पड़ेगा.
और ये लाजिक मैं नही दे रहा हूं. बल्कि मैने ये एक पत्रिका(कंप्यूटर संचार सूचना) में (काफ़ी पहले) पढ़ा था जिसमें पोर्न के ऊपर हुई रिसर्च का रिजल्ट छपा था.
एक और चौंधियाने वाला सत्य!
Sahi kaha adarsh Bhai ... Print media ko check koun kare.. aajkal har koi agey badne ke chakkar main kya kuch kar jata hai yeh vo khud bhi nahi janta hai....
how can you write a so cool blog,i am watting your new post in the future!