ये फोटो मेरे कार्यालय के बाहर के चाय के ठेला लगाने वाले बच्चे का है। अलग-अलग जगहों पर काम करने वाले कर्मचारी यहीं आकर चाय पीते हैं।
ज़रा सोच कर देखिए इस बच्चे की जगह आपका कोई अपना काम कर रहा होता तो? इस बच्चे जैसे करोड़ों बच्चे न सिर्फ शिक्षा से महरूम हैं बल्कि मज़दूरी भी कर रहे हैं। इससे भी ज्यादा दुर्दशा है रेड लाइट्स पर भीख मांगने वाले बच्चों की। ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि इन बच्चों की इस हालत के लिए कौन दोषी है?
हम आप कुछ कर भी नहीं सकते, हम सब मजबूर हैं....फिर ये किसका नकारापन है? आज़ादी के 61 साल बीतने के बावजूद ऐसे हालात हैं। इसके लिए न केवल सरकारें बल्कि संविधान निर्माण और योजनाओं का निर्माण करने में हुई अदूरदर्शिता दोषी है। साफ है सरकार के बाल मजदूरी रुकवाने, सर्व शिक्षा अभियान और दूसरे सभी कार्यक्रम महज कागज़ी पुलिंदे हैं। सरकार और उसके विभागों का काम महज योजनाओं को पारित कर देना भर है। उसका क्या परिणाम है, क्या प्रगति है, इस कोई ध्यान नहीं देता।
मौजूदा हालत को देखकर तो लगता है कि अच्छा है जो ये बच्चा शिक्षा ग्रहण नहीं कर रहा। क्योंकि अगर ये स्कूल जाता भी तो इसे बजाय शिक्षित करने के साक्षर बनाकर छोड़ दिया जाता। उसके बाद अगर ये ज्यादा पढ़ लिख भी जाता तो आरक्षण से लेकर सिफारिश आदि का भूत इसे निराश कर देता। रोज़गार कहीं मिलता नहीं और फिर से घूम-फिरकर चाय का ठेला ही लगाना पड़ता।
इसलिए बढ़िया है जो ये आज से ही इस काम में जुट गया है। हो सकता है ये धीरे-धीरे प्रगति करे और चाय के ठेले से शुरुआत कर किसी होटल का मालिक बन जाए.......। कम से कम अपने परिश्रम से कुछ तो हासिल कर ही पाएगा। वरन् देश की शिक्षा व्यवस्था पढ़े-लिखे बेकारों की संख्या बढ़ाने के अलावा करती ही क्या हैं?
ज़रा सोच कर देखिए इस बच्चे की जगह आपका कोई अपना काम कर रहा होता तो? इस बच्चे जैसे करोड़ों बच्चे न सिर्फ शिक्षा से महरूम हैं बल्कि मज़दूरी भी कर रहे हैं। इससे भी ज्यादा दुर्दशा है रेड लाइट्स पर भीख मांगने वाले बच्चों की। ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि इन बच्चों की इस हालत के लिए कौन दोषी है?
हम आप कुछ कर भी नहीं सकते, हम सब मजबूर हैं....फिर ये किसका नकारापन है? आज़ादी के 61 साल बीतने के बावजूद ऐसे हालात हैं। इसके लिए न केवल सरकारें बल्कि संविधान निर्माण और योजनाओं का निर्माण करने में हुई अदूरदर्शिता दोषी है। साफ है सरकार के बाल मजदूरी रुकवाने, सर्व शिक्षा अभियान और दूसरे सभी कार्यक्रम महज कागज़ी पुलिंदे हैं। सरकार और उसके विभागों का काम महज योजनाओं को पारित कर देना भर है। उसका क्या परिणाम है, क्या प्रगति है, इस कोई ध्यान नहीं देता।
मौजूदा हालत को देखकर तो लगता है कि अच्छा है जो ये बच्चा शिक्षा ग्रहण नहीं कर रहा। क्योंकि अगर ये स्कूल जाता भी तो इसे बजाय शिक्षित करने के साक्षर बनाकर छोड़ दिया जाता। उसके बाद अगर ये ज्यादा पढ़ लिख भी जाता तो आरक्षण से लेकर सिफारिश आदि का भूत इसे निराश कर देता। रोज़गार कहीं मिलता नहीं और फिर से घूम-फिरकर चाय का ठेला ही लगाना पड़ता।
इसलिए बढ़िया है जो ये आज से ही इस काम में जुट गया है। हो सकता है ये धीरे-धीरे प्रगति करे और चाय के ठेले से शुरुआत कर किसी होटल का मालिक बन जाए.......। कम से कम अपने परिश्रम से कुछ तो हासिल कर ही पाएगा। वरन् देश की शिक्षा व्यवस्था पढ़े-लिखे बेकारों की संख्या बढ़ाने के अलावा करती ही क्या हैं?
नहीं यह बहुत बुरा है । परन्तु कुछ दोष तो जन्म देने वालों का भी है ।
घुघूती बासूती
आपके लेख में जो दर्द छुपा है वह मैं महसूस कर रहा हूँ. कहते हें आज के बच्चे कल का भविष्य हें, कल के देश के कर्णधार हें. इन्हें उस कर्तव्य निबाहने के योग्य बनाने की जगह देश पर वोझ बनाया जा रहा है.
घुघूती बासूती जी से सहमत हूँ जन्म देने वालों का ही दोष ज्यादा है .
सच मै बहुत बुरा लगता है, लेकिन अगर पढ लिख कर भी ठेला लगाये तो बुरा नही, कम से कम मेरे भारत का नोजवान पढा लिखा तो होगा.
लेकिन् पढे भी कहां ??? उसे भी इन निकम्मए नेताओ ने ओर हम सब ने दुकान दारी बना दिया है... दोष हम सब का है, कुछ कुछ
जन्म देने वालों का दोष?????? मैं इस प्रतिक्रिया से थोड़ा हैरान हूं...आदर्श जी आज आपसे भी सहमत नहीं हो पा रहा हूं...शिक्षा तो चाहिए ही...
विवेक जी, शिक्षा तो ज़रूरी है ही, लेकिन वो मिल कहां पा रही है? इसीलिए इसपर एक व्यंग्य किया है
सबको शिक्षा? अरे सब दिखावा है. एक गणित देखिये समाज को अगर हम ३ वर्गों में बांटे तो : १. उच्च वर्ग(इन्हे पैसे की कोई दिक्कत नही)
२. निम्न वर्ग(पैसे कम जरूर हैं पर जरूरतें भी कम हैं और बाकी सरकारी योजनाओं से मिल जाता है)
अब तीसरा: मध्यम वर्ग: ये वो है जिसे सबकुछ झेलना पड़ता है. भई मैं इसी वर्ग में आता हूं. सरकार बोलती है कि सबको फ़्री शिक्षा. अरे कहां? मैने मल्टीमीडिया का कोर्स किया: और फ़ीस से ज्यादा पैसे देने पड़े पता लगा कि सर्विस टैक्स जुड़ रहा है. और आप जानते ही हैं कि इस तरह के कोर्सों की फ़ीस बहुत ज्यादा होती है. आज की स्थिति में मैने कोर्स तो कर लिया पर मेरी जो ३ साल पहले स्थिति थी उसके हिसाब से तो ये कोर्स केवल एक सपना ही रह जाता.
---------------------------------
आपने लेख में जो बात कही है मैं उससे सहमत हूं.
aadarsh, ye kahna thodi jaldbazi hai kee padh-likh kar bhi kya karta... abhee se dukan laga raha hai achchha hai...
ye do alag-alag pehlu hain... dono ko mix karna thik nahin.
padhai jaroori hai aur rozgar to aadmi kuchchh bhi kar sakta hai... wo chai kee dukan bhi ho saktee hai... boot police bhi aut akhbar ke daftaron main clerky bhi...
आपकी संवेदनशीलता आदरणीय है...
आदर्श जी मै ये सोचता हूं कि अगर ये मासूम पढे लिख तो ये देश की तरक्की में अपना योगदान दे सकता है.आप ये क्यों सोचते है कि ये पढ़ लिखकर भी ठेला ही लगाएगा.आप ये क्यों नहीं सोचते कि कल को ये भी राकेश शर्मा, कल्पना चावला की तरह देश का नाम रोशन करे. आज ये बच्चा चाय के ठेले पर है तो इसकी वजह इसके मां-बार ही है क्योंकि शायद वे पढ़ेलिख नहीं होंग. अगर वे पढ़े-लिख होते तो शायद ये आज यहां नहीं होता. और अगर आज ये नहीं पढ़ रहा है तो शायद कल को ये भी अपने बच्चों को पढ़ने के लिए नहीं भेजेगा और शायद ये सिलसिला यूं ही चलता रहेगा और देश का भविष्य भी यूं ही चाय के ठेले पर दिखता रहेगा
अमित और पशुपति जी,
आपके विचारों की कद्र करता हूं। लेकिन ये भी समझें कि इस बच्चे के हालात के माध्यम से मैंने देश की दुर्दशा पर प्रहार करने की कोशिश की है। देश की शिक्षा व्यवस्था रोज़गार प्रधान नहीं है। हम पढ़ना लिखना सीख जाते हैं लेकिन जीवन यापन करने के लिए ज़रूरी जानकारी आदि के बारे हमें ज्ञान नहीं रहता। इस तरह की 'शिक्षा' हासिल करने के बाद भी आज देश में रोज़गार के अवसर नहीं हैं। और चाय का ठेला लगाना कोई हेय काम नहीं है। मैंने यहां चाय के ठेले पर काम करने पर सवाल नहीं खड़े कर रहा, मैं तो इस नन्हे मुन्ने बच्चे के इस ठेले पर काम करने पर चिंता जता रहा हूं। और पैदा करने वालों को दोष देना उचित है या नहीं, ये अलग बहस का विषय है। आगे इसी विषय पर अपने विचार उत्पन्न करूंगा जिस पर चर्चा के लिए आप सादर आमंत्रित हैं.......
आदर्शजी आप ने हमारे ब्लाग पर दस्तक दी और आदतन कौन साहब हैं की खोज में आप के ब्लॉग पर आ गया. बच्चे की चाय के ठेले पर तस्वीर देखी.
लोगों की प्रतिक्रियाओं को देखा एक उर्दू के शायर का शेर याद आ गया-
मुफ़लिसी ले गयी बच्चे को पढ़ाने के लिए.
मैने चाहा तो बहुत उसको पढ़ाने के लिए.
हर मां बाप की ख़्वाहिश होती है कि अपनी औलाद को पढ़ाये लिखाये पर घर के हालात बच्चों को कहां ले जाते हैं.
मेहनतकश बच्चे की तस्वीर है अच्छा है वरना ऐसे मंज़र भी देखे जाते हैं- किसी हिन्दी ग़ज़लकार की पंक्तियां देखिये-
कितने ज़िस्मों पे नहीं आज भी कपड़ा कोई.
इस समस्या पे तो आयोग न बैठा कोई.
चोर बनता नही बच्चा तो भला क्या बनता.
जब खिलौना नहीं बाज़ार में सस्ता कोई
गरीबी और ज़ुल्म बच्चों के हाथों में खिलौने की जगह ए.के.47 और हेन्डग्रेनेड भी थमा देते है साहब और अंजाम हमारे सामने है इसका तब्सिरा कौन करेगा ?
can you email me: mcbratz-girl@hotmail.co.uk, i have some question wanna ask you.thanks