शून्य
ये मेरी पहली रचना थी। कक्षा सात में पहली बार मैंने कुछ लिखा था। कल अपने बक्से में कुछ ढूंढ रहा था तो हाथ आ गई। उससे इन पंक्तियों को बिना किसी सुधार के यथावत इस पोस्ट में उतार रहा हूं.

कभी इधर, कभी उधर
मंज़िल से अपनी बेखबर,
व्यर्थ भटकते रहे
हम यूं ही उलझते रहे.....

कभी नींद के आगोश में
कभी अपने पूरे होश में,
कभी सफलता के जोश में
कभी असफलता के रोष में,
दिवास्वप्न देखते रहे
व्यर्थ भटकते रहे
हम यूं ही उलझते रहे.....

हितैषियों के देश में
हमें हमारे देश में,
विदेशी लूटते रहे
हम सहज ही लुटाते रहे,
व्यर्थ भटकते रहे
हम यूं ही उलझते रहे.....

गांधी के देश में
परस्पर घृणा व द्वेष में,
लड़-लड़ बिखरते रहे
तिल-तिल को मरते रहे,
व्यर्थ भटकते रहे
हम यूं ही उलझते रहे.....
7 Responses
  1. अच्छा लिखा और अच्छी आवाज़ जीओ आदर्श भाई।


  2. कक्षा 7 में ! बहुत बढिया !
    घुघूती बासूती


  3. ये ब्लॉग का एक बेहतर इस्तेमाल
    पुरानी यादें बाँट लेने का सुंदर मंच
    उतनी ही खूबसूरती से
    इस्तेमाल कर रहे हो भाई
    बहुत बहुत बधाई।


  4. भैया, बहुत अच्छी रचना है. मेरी तरफ़ से बधाई.


  5. Anonymous Says:

    वक्त की बात है तरसे हैं जो इक प्याले को हम
    कितने ही प्याले तो पी -पी कर उछाले होंगे।

    बहुत बढ़िया भाई, प्याले को इसी तरह भरते रहिए।


  6. बहुत ही सुंदर लगी आप की यह कक्षा सात की कविता,
    धन्यवाद


  7. Anonymous Says:

    Very good!