Aadarsh Rathore
कुछ बातें ऐसी होती हैं, जो सिर्फ आपको ही मालूम होती हैं। यानी हर किसी के कुछ सीक्रिट होते हैं। क्या हमारे अंदर इतनी हिम्मत है कि हम उन्हें राज न रहने दें? मेरी जिंदगी की बहुत सी ऐसी बाते हैं, जिन्हें मैं सबसे शेयर कर देना चाहता हूं। इनमें से कुछ मजेदार हैं, कुछ दुखद तो कुछ कल्पना से भी परे। तो यह रहा मेरा पहला कन्फेशन:

क्या आपने कभी चोरी की है? हो सकता है कि हम सभी ने छोटी-मोटी चोरियां की हों। जैसे कि बागीचे से अमरूद चुरा लेना, गन्ने चुरा लेना वगैरह-वगैरह। ये ऐसी घटनाएं भी हो सकती हैं, जिन्हें शायद चोरी न भी माना जाए। लेकिन कभी आपने ऐसा कुछ किया है, जिसे पकड़े जाने पर आप चोर घोषित हो सकते थे? मैंने किया है। अपनी जिंदगी की पहली और शायद आखिरी चोरी का किस्सा कुछ यूं है-

यह घटना उस वक्त की है, जब मैं चौथी क्लास में पढ़ता था। गांव के स्कूल से जोगिंदर नगर बॉयज स्कूल के प्राइमरी स्कूल में आए एक साल हो चुका था। यहां स्कूल में एक कमरा था, जिसे स्टोर कहा जाता था। इस स्टोर से अक्सर दोपहर 2 बजे एक स्टोव निकाला जाता और उसपर टीचर चाय बनाया करते थे।

इस स्टोव को निकालने की जिम्मेदारी प्रवीण नाम के मेरे क्लासमेट को दी गई थी। जिम्मेदारी क्या दी गई थी, वह खुद ही वॉलंटियर कर दिया करता था। मेरा भी शौक जगा कि देखा जाए उस स्टोर रूम को। क्योंकि दरवाजे में लगे शीशों से दिखता था कि अंदर किताबों के ढेर भी लगे थे। मैंने तय कर लिया था कि मैं भी प्रवीण के साथ स्टोव लाने के बहाने अंदर जाऊंगा

एक दिन मैं टीचर से कहा कि मैं भी प्रवीण के साथ जाना चाहूंगा। इजाजत मिल गई, सो मैं भी चला गया। प्रवीण स्टोव और मिट्टी के तेल की बोलत उठा रहा था औऱ मैं किताबों के ढेर को देखकर गदगद था। प्रवीण ने कहा- चलो, देर हो रही है। मगर मैं तो किसी औऱ ही दुनिया में था। वाह! ... तरह-तरह की किताबें।

किताबों के ढेर को उलटते-पलटते मुझे एक किताब दिखी- The Art of Cricket. मैंने इस किताब को हाथ में उठाया ही था कि एक टीचर की आवाज सुनाई दी- क्या कर रहे हो, इतनी देर लगा दी। रखो इस किताब को! चलो बाहर। मैंने वह किताब रखी और भारी मन से बाहर आ गया। मगर तमन्ना जग गई कि वह किताब तो पढ़नी ही है।

पता नहीं क्यों, दिमाग ने काम नहीं किया। पापा से कहता तो किताब खरीद देते। लेकिन चाय बन जाने के बाद स्टोव अंदर रखने के लिए स्टोर रूम का दरवाजा खुला, मैं प्रवीण के साथ अंदर गया और मैंने वह किताब अपने स्वेटर के अंदर डाल दी। बाहर आया और अपनी सीट पर बैठ गया। लेकिन इसके बाद जो कुछ हुआ, उसने मेरी जिंदगी बदल दी।

2 बजे के करीब मैंने वो किताब उठाई या यूं कहिए कि चुराई होगी। छुट्टी होने में अभी डेढ़ घंटा बाकी था। सर्दियों के दिन थे, लेकिन मैं पसीने से तर-ब-तर हो चुका था। डर लग रहा था कि कहीं पकड़ा गया तो मेरा क्या होगा। जैसे-तैसे छुट्टी हुई, मैं स्कूल से निकला और पापा के पास चला गया। इस बीच चुपके से मैंने वह किताब बैग में डाल ली थी।

मेरी हालत खराब हो चुकी थी। घर पहुंचने पर डर लगा रहा कि मैं इस किताब को पढ़ूं कहां। अगर ममी-पापा में से किसी ने देखकर पूछ लिया कि यह किताब कहां से आई तो क्या जवाब दूंगा? यह सोचकर घर में भी परेशान रहा। उस रात नींद नहीं आई। सोचता रहा कि मैंने यह क्या कर दिया है। तय किया कि अगले ही दिन मैं यह किताब वापस उस स्टोर में रख दूंगा।

अगले दिन स्कूल पहुंचा। सर्दियों के दिनों में हमें क्लासरूम्स से बाहर बरामदे में बिठाया जाता था, जहां धूप आती थी। वहीं बैठकर मैं एकटक स्टोर रूम के दरवाजे को देखता जा रहा था। 2 भी बज गए, लेकिन न जाने क्यों आज किसी टीचर का मन चाय पीने को नहीं हुआ। उस दिन वह दरवाजा नहीं खुला।

मेरी हालत खराब हो चुकी थी। बुखार की चपेट में आ चुका था। हालात इतनी खराब हो गई कि 2 दिन स्कूल भी नहीं जा सका। हो सकता है कि शायद वायरल का असर रहा हो, लेकिन मुझे लगता है कि वह किताब का ही असर था। हर वक्त यह सोचता रहा कि कैसे इस किताब को वापस रखूं। 2 दिन बाद स्कूल लौटा। इस फिराक में था कि कब स्टोर रूम खुले।

संयोग की ही बात थी कि उस दिन प्रवीण नहीं आया था। 2 बजते ही मैंने खुद से टीचर से कहा कि मैं स्टोव बाहर निकाल देता हूं। चाबियों को गुच्छा मुझे थमाया गया, मैंने ताला खोला और स्टोर रूम में दाखिल हो गया। सुबह से ही तैयारी करके आया था। किताब को स्वेटर के अंदर छिपा रखा था। झट से मैंने वह किताब ढेर पर फेंकी, स्टोव उठाया और चहकते हुए बाहर आ गया।

उसके बाद आप अंदाजा नहीं लगा सकते कि मैं कितना हल्का महसूस कर रहा था। जैसे कई मन बोझ उतर गया हो सिर से। बीमारी दूर हो गई, मेरे चेहरे की मुस्कुराहट लौट आई। साथ ही शरारती आदर्श की वापसी हो गई, जो पिछले कुछ दिनों से गुमसुम था। वह दिन था और आज का दिन है। मैंने कोई ऐसा काम नहीं किया, जिससे कोई मुझपर हेराफेरी या चोरी का इल्जाम लगा सके।

साथ ही एक बात और...। मुझे बाद में पता चला था कि वे किताबें हम स्टूडेंट्स के लिए ही आई थीं। लाइब्रेरी के लिए। मगर उन्हें स्टूडेंट्स को पढ़ने देने के बजाय स्टोर रूम में धूल फांकने के लिए रख दिया गया था। सरकारी प्राइमरी स्कूलों में यही आलम था उन दिनों। अगर वह किताब पढ़ने के लिए दी होती या बताया गया होता कि मैं इसे पढ़ने के लिए इशू करवा सकता हूं, तो शायद मैं वैसा नहीं करता।

मगर यह भी सच है कि चोरी करना तो किसी भी हाल में गलत है ही। और हां, मैं उस किताब को आज तक नहीं पढ़ पाया हूं। उस दौर में क्रिकेट की दीवानगी थी और आज रुचि कम हो चुकी है। मगर उस किताब को बिना पढ़े ही मैंने जिंदगी का एक बड़ा सबक पाया है। उसके लिए मैं हालात और ईश्वर का आभारी हूं। कुछ दिनों बाद एक और कन्फेशन। अपनी विध्वंकारी शरारतों पर।
1 Response
  1. Arvind Kumar Says:

    पढ़ कर अच्छा लगा.