Aadarsh Rathore
कल सुबह की बात है. नींद खुलते ही हाथ सीधा फ़ोन पर गया. एक मैसेज भेजा और फिर आंखें बंद कर झपकी लेने लगा. इसी बीच उनींदी सी हालत में कुछ फड़फड़ाने की आवाज़ सुनाई दी. पहले लगा कि शायद कोई पॉलिथीन बैग पंखे की हवा से फड़फड़ा रहा है. लेकिन जब तेज़ आवाज़ नींद में खलल डालने लगी तो आंखों को ज़बरदस्ती खोलते हुए देखने लगा कि आवाज़ आ कहां से आ रही है. देखा कि बिस्तर के पास ही रखे टेबल के नीचे कोई चीज़ पड़ी हुई है. आधी नींद में कुछ समझ नहीं आ रहा था. ग़ौर किया तो दिखा कि स्लेटी रंग का एक कबूतर गिरा पड़ा है, एकदम निढाल. मैंने और करीब से देखा तो घबरा गया. मुझे उस कबूतर का सिर ही कहीं दिखाई नहीं दे रहा था. मैंने सोचा कि बेचारा उड़ता हुआ कमरे में घुस आया होगा और पंखे से टकराकर इसका सिर ही अलग हो गया है. हड़बड़ाकर मैं तुरंत उठा और लाइट ऑन की. देखा कि उसकी गर्दन तो सही सलामत है लेकिन एकदम लुढ़की हुई है. कबूतर की आंखें बंद थीं लेकिन वो जो़र-ज़ोर से सांस ले रहा था. पहले मैंने ऐसा कभी नहीं देखा था. उसके बेदम पड़े शरीर को फूलता, सिमटता देख अंदाज़ा हो गया था कि ये बचने वाला नहीं है. जाने क्या हुआ था, लग रहा था कि ये पंखे से टकराया होगा.

मुझे अफसोस होने लगा कि क्यों मैं दरवाज़ा खोलकर सोया. हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि उस कबूतर को उठाकर देखूं. मैंने आज तक कबूतर क्या किसी भी पक्षी को हाथ तक नहीं लगाया था. इतने में ध्यान आया कि बगल वाले रूम में एक लड़का है शिव, जो एक दिन बता रहा था कि उसके घर में दर्जनों कबूतर हैं. मैं तुरंत उठा और उसका दरवाज़ा खटखटाने लगा. सुबह के साथ बज रहे होंगे, काफी देर तक दरवाज़ा खटखटाने के बाद झीझा हुआ सिव बाहर निकला. इससे पहले कि वो कुछ पूछता मैंने एक सांस में उसे पूरी घटना कह सुनाई. अनमना और ऊंघता हुआ सा शिव मेरे कमरे में दाखिल हुआ. जिस तरफ कबूतर गिरा था मैंने उस तरफ इशारा किया. उसे लगा कि मैं मज़ाक कर रहा हूं और जुराबों को कबूतर साबित करने पर तुला हुआ हूं. दरअसल वो कबूतर एकदम औंधा पड़ा था. लग ही नहीं रहा था कि उसके जान भी बाकी हो. फिर जब शिव करीब गया तो उसके चेहरे के भाव बदल गए.. पहले जहां उसके चेहरे पर खीझ थी, अब उसके चेहरे पर गंभीरता और परेशानी सी साफ झलक रही थी. उसने कबूतर को अपने हाथों में उठा लिया, कबूतर ने भी कोई प्रतिरोध नहीं किया. कुछ देर बाद कबूतर एक बार फड़फड़ाया और फिर उसकी गर्दन एक तरफ़ लुढ़क गई, आंखें बंद... हमने सोचा कि कहानी ख़त्म हुई. लेकिन शिव ने कहा कि वो उसे सांस लेते हुए महसूस कर सकता है.

मैंने शिव को कहा कि चलो इसे बाहर ले चलें. हम उसे बाहर ले गए और टेबल पर रखकर जांच करने लगे कि कहीं इसे कोई चोट तो नहीं आई है. देखने पर कोई भी चोट नहीं मिली. मेरे मन में ख्याल आया कि क्यों न इसे पानी पिलाकर देखा जाए, हो सकता है कि पानी की कमी के कारण निढाल पड़ा हो. मैं तुरंत एक कटोरी में पानी ले आया. शिव ने उसकी गर्दन जो कि एक तरफ लुढ़की हुई थी पानी की कटोरी की तरफ की और चोंच पानी में डुबो दी. कुछ देर तक तो कुछ नहीं हुआ लेकिन थोड़ी ही देर में हलचल हुई, कबूतर ने आंखें खोलीं और पूरे उत्साह से पानी पीने लगा. कुछ ही देर में वो आधी कटोरी गटक गया. कुछ देर बाद उसने गर्दन झटकी जिससे हमें इशारा मिला कि ये और पानी नहीं पिएगा. इसके बाद हमने उस कबूतर टेबल पर रख दिया. वो अपने पंजों पर खड़ा नहीं हो पा रहा था सो हमने दीवार की टेक लगाकर उसे लिटा दिया. मैंने सोचा कि क्यों न इसे पानी में ग्लूकोज़ मिलाकर दिया जाए. क्योंकि अब तक ये सिद्ध हो चुका था ये कबूतर पानी न मिलने के कारण डिहाइड्रेशन का शिकार हो चुका है. मैं तुरंत ग्लूकोज़ लाया और कटोरी में घोल दिया. आधे घंटे बाद कबूतर को फिर उठाया और उसे ग्लूकोज़ मिला पानी पिलाया.. उसी तरीके से गर्दन पकड़कर चोंच पानी में डाली और वो गटकने लगा.

आधा कटोरी पानी पीने के बाद कबूतर ने गर्दन जो़र से हिलाई, जैसे कि वो अक्सर हिलाया करते हैं. इसके बाद उसने आंखें खोलीं और एक नज़र शिव की तरफ देखा और फिर गर्दन घुमाकर आंखें बंद कर लीं. मानो उसका शुक्रिया अदा कर रहा हो. यकीन मानिए, उधर ग्लूकोज़ ने अपना असर दिखाया और वो कबूतर जो कुछ देर पहले तक निढाल पड़ा था अब अपनी गर्दन खड़ी कर इधर-उधर देख रहा था. हालांकि अभी तक उसके पंजों में ताक़त नहीं आ पाई थी. हम चर्चा कर रहे थे कि ये बचेगा या नहीं. कबूतर के जीने की संभावनाएं बहुत कम थीं. जो भी देख रहा था वो यही कह रहा था कि इसे छोड़ दो इसकी हालत पर... ये बच नहीं पाएगा. लेकिन मेरा मन नहीं मान रहा था. करीब दो घंटे तक हम सब काम भूलकर उसके सामने बैठे रहे और नियमित अंतराल पर उसे पानी पिलाते रहे. वो पानी पीता और बीट (विष्ठा) कर देता. इस तरह से हमें लगा कि चलो इसका सिस्टम कुछ तो सुधरा. तीन घंटे बाद मेहनत रंग लाई और वो कबूतर अपने पंजों पर उठ खड़ा हुआ. हालांकि वो इस स्थिती में नहीं था कि उड़ पाए या हिल-डुल पाए लेकिन उसका अपने पंजों पर खड़ा होना हमारे लिए बहुत सुकून लेकर आया. शिव और मेरे चेहरे पर मुस्कान छा गई. अब तक हमारे मन में उसके बचने की उम्मीद और गहरी हो चली थीं. जब उसकी हालत में थोड़ा और सुधार हुआ तो हमने सोचा कि इसे यहीं रखते हैं, थोड़ी देर में आकर देखते हैं कि सीन क्या है. तब तक हम अपने दैनिक काम निपटाने चले गए. थोड़ी ही देर में बाहर से कौओं की आवाज़ आने लगी. बाहर निकलकर देखा तो कौओं का मजमा लग गया है और वो उस कबूतर को अपना शिकार बनाने की तैयारी कर रहे हैं. उन कौओं को तो मैंने भगा दिया लेकिन अब चिंता दोहरी हो गई. कबूतर उड़ने की स्थिती में था नहीं, और उसे ऐसे खुले में अकेले रखना भी सुरक्षित नहीं था. एक तो कौए और ऊपर से बिल्ली का डर.

मैं तुरंत किचन से एक खाली पेटी ले आया. उसमें चारों तरफ से हवा आने-जाने के लिए कुछ सुराख किए और कबूतर को उसमें डाल दिया. साथ ही ग्लूकोज़ मिले पानी की एक कटोरी भी रख दी. अब समस्या ये थी कि इसे रखें कहां. मैंने उसे कमरे में ले जाने का फैसला किया. पेटी उठाई और उसे एक कोने में रख दिया. जब ऑफिस के लिए तैयार हो गया तो पेटी का ढक्कन खोलकर देखा. कबूतर एक कटोरी पानी को खत्म कर चुका था और अब पेटी के अंदर इधर-उधर टहल रहा था. देखकर बड़ा संतोष हुआ. अब समस्या ये थी कि ऑफिस चला जाउंगा तो फिर देखभाल कौन करेगा इसकी. शिव तो पहले ही निकल चुका था ऑफिस के लिए. काफी सोच-विचार करने के बाद मैंने वो पेटी उठाई और उसे बगलवाले रूम में रख दिया. उस कमरे में इतना झरोखा है कि कबूतर उड़कर बाहर जा सके. मैंने पेटी का ढक्कन भी खोल दिया कि अगर ये ठीक हो गया तो यहीं से उड़ जाएगा और नहीं तो फिर ईश्वर की मर्ज़ी.

ये सोचते हुए मैं ऑफिस के लिए निकल गया. दिन भर सोचता रहा कि उसकी हालत कैसी होगी. रात को ऑफिस से घर आ रहा था तो सोच रहा था कि वो बचा भी होगा या नहीं. झटपट सीढ़ियां चढ़ते हुए कमरे में दाखिल हुआ और पेटी में झांककर देखा. पेटी खाली थी. देखकर अच्छा लगा. फिर एक नज़र कमरे में इधर-उधर दौड़ाई कि कहीं और यहीं तो नहीं पड़ा हुआ है. कबूतर कमरे में नहीं था. साफ था कि वो उस झरोखे से बाहर निकल चुका था. लंबे समय बाद मैं इतना ख़ुश हुआ था. मुस्कुराता तो मैं हमेशा रहता हूं, ठहाके भी लगाता हूं. लेकिन आंतरिक प्रसन्नता तो चीज़ ही अलग है. उस वक्त क्या महसूस कर रहा था, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता. संतोष था एक अलग सा. जो कबूतर आखिरी सांसें गिन रहा था, जिसके बचने की उम्मीद तक नहीं बची थी, गर्दन एक तरफ लुढ़की हुई थी, पंजों पर खड़ा नहीं हो पा रहा था, वो एकदम ठीक होकर उड़ गया. पता नहीं बाहर जाकर उसका क्या हुआ होगा लेकिन इस बात का संतोष है कि उसे बचाने की हमने पूरी कोशिश की. हमने उसे इस लायक बना दिया कि वो अगर हमारे पास निढाल होकर आया था लेकिन गया तो सक्षम होकर. हमने उसे उसके हाल पर नहीं छोड़ा.

इन दिनों दिल्ली की गर्मी जान लेने पर आमादा है. ऊपर से इस कंक्रीट के जंगल में पानी की एक बूंद तक नहीं मिलती. सोचिए जब यहां सबसे काबिल प्राणी, इंसान को भी खरीद कर पानी पीना पड़ता है तो भला से बेचारे जीव कहां से पानी पीएंगे. कहने को तो यहां एक बड़ी नदी भी बहती है लेकिन उसके पानी की एक बूंद भी अगर कोई जीवधारी पी लें तो तुरंत ही देह त्याग दें. ऐसे में आप सभी से गुज़ारिश है कि गर्मियों में अपने आंगन या छत पर एक बर्तन ज़रूर रखें जहां से ये पक्षी अपनी प्यास बुझा सकें. अगर आप ईश्वर में आस्था रखते हैं तो पुण्य मिलेगा और अगर नास्तिक हैं, तब भी अलौकिक संतोष मिलेगा.
2 Responses
  1. आपका ये प्रयास प्रशंसनीय है.....निश्चय ही आपको इसका पुण्य प्राप्त होगा....और सबसे महत्त्वपूर्ण बात .......ये एक प्रेरक घटना है जिससे हम सभी को कुछ ना कुछ सीख मिलती है...
    सत्य घटना का सुन्दर वर्णन


  2. आपने बहुत ही अच्छा और नेक कार्य किया और सही आह्वान कियाहै…………हम सबको इससे शिक्षा मिलती है।