गोपाल सिंह नेगी
7 अगस्त, 2006
सुबह के साढे चार बजे
एक पहाड़ी लड़का कंधे पर लाल बैग टांगे
बुनने कुछ सपने नए और कुछ को पूरा करने
आ पंहुचा एक नए ठिकाने, देश की राजधानी में।
खूबसूरत वादियों से आया वो पहाड़ी
कंक्रीट का जंगल देखकर घबरा गया
सड़क के ऊपर सड़क और सड़क के नीचे भी सड़क
देखकर ये सब उसे पसीना आ गया,
यहां के शॉपिंग मॉल उसके पूरे क़स्बे से बड़े थे
उसके गांव के स्कूल से बड़े यहां दारु के ठेके खड़े थे.
उसने प्रण लिया कि यहीं पर वो भविष्य बनाएगा
ठेकों के पास रहकर भी दारू को हाथ नहीं लगाएगा।
आज 4 साल बीत गए इस बात को
सपनों को पूरा करने की कवायद शिद्दत से जारी है
एकलौता है घरवालों का सो उम्मीदें भारी हैं
चकाचौंध से गुज़रता है वो बेशक शॉपिंग मॉल में घूमता है
मगर जो गांव के एक छोटे से स्कूल से जीतकर पंहुचा था यहां तक
आज उसकी उम्मीदें दारू के उन्ही ठेकों से हारी हैं....
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3 Responses
  1. बहुत अच्छी बात कही है.. अमूमन लोग उम्मीदों के हारने पर ठेके का 'सहारा' लेते हैं... लेकिन वो भूल जाते हैं कि मदिरा और कमज़ोर कर देती है..। शायद आपका व्यक्तिगत अनुभव यही बयां कर रहा है...
    लेकिन हारिए मत.. आगे बढ़िए... आप जानते हैं कि आप ये कर सकते हैं


  2. रोज़गार की स्थिति,पलायन और महानगरीय दंश पर अच्छा व्यंग्य।


  3. anoop joshi Says:

    bahut khoob sir........