जुलाई और अगस्त के महीने से ही माताजी मेरे लिए स्वेटर बुनना शुरू कर देती थीं... ताकि वो समय पर तैयार हो जाए...। मुझे याद है की अमूमन हफ्ते मे दो या तीन बार माताजी मेरे स्वेटर का नाप लेती थीं। कभी बॉर्डर का, कभी बाजू का तो कभी गले का। पहाड़ों मे नवंबर-दिसंबर तक शीत लहर अपना प्रकोप दिखाने लगती थी... और अब तक माताजी के द्वारा बनाया गया स्वेटर भी तैयार हो चुका होता था...। पहली बार उसे पहनते हुए मुझे बहुत अच्छा लगता था...। ऐसा अनुभव होता था जिसे शब्दों में बयां नहीं कर सकता। हालाँकि कभी-कभी वो थोड़ा चुस्त होता या कभी ढीला होता...। लेकिन फिर भी उसे पहनने के बाद एक नया जोश सा आता। बार-बार शीशे के सामने खड़ा होता और बार-बार अपनी 'सुंदरता' पर फूला न समाता। उसे पहनकर मैं कभी स्कूल तो कभी बाज़ार घूमने जाया करता था। और इस तरह एक स्वेटर मे दो या तीन सर्दियाँ आराम से कट जाती थी......
मगर अब हालत बदल चुके हैं। अब माताजी मेरे लिए स्वेटर नहीं बुनतीं... क्योंकि अब बाज़ार मे रेडीमेड स्वेटर आराम से मिल जाते हैं...। अच्छे डिजाइन मे, अच्छी फिटिंग में और अच्छे दाम में...। अब माताजी को स्वेटर बुनने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती क्योंकि रेडीमेड स्वेटर मे सबकुछ मिलता है...। लेकिन इस स्वेटर में मैं आज भी वो प्रेम और ममता भरी गर्माहट ढूंढता हूं जो मां के हाथ से बुने स्वेटर में होती थी...
मगर अब हालत बदल चुके हैं। अब माताजी मेरे लिए स्वेटर नहीं बुनतीं... क्योंकि अब बाज़ार मे रेडीमेड स्वेटर आराम से मिल जाते हैं...। अच्छे डिजाइन मे, अच्छी फिटिंग में और अच्छे दाम में...। अब माताजी को स्वेटर बुनने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती क्योंकि रेडीमेड स्वेटर मे सबकुछ मिलता है...। लेकिन इस स्वेटर में मैं आज भी वो प्रेम और ममता भरी गर्माहट ढूंढता हूं जो मां के हाथ से बुने स्वेटर में होती थी...
भावुक कर दिया आपने....
माँ के हाथ का बुना स्वेटर। पढ़कर यकीन नहीं होता कि लोगों के दिलों में आज भी इस तरह की भावनाएँ बची हुई हैं।
बहुत दिन बाद गोपाल जी की पोस्ट पढ़ रही हूं। हमेशा की तरह बहुत ही भावनात्मक लिखा है।
ya, really nice post...
रेडीमेड स्वेटर में वाकई वो बात नहीं ....
मेरी मां ने २० साल पहले मेरे लिये आखरी स्वेटर बुना . आज तक वह स्वेटर तो मेरे पास है लेकिन मां नही . कितनी यादें याद आ गई और कुछ आसूं भी .
बिल्कुल ठीक... मेरी मां भी मेरे लिए स्वेटर बुनती थीं... लेकिन अब सर्दियां कम होने लगी हैं... सारी सर्दियां तो स्वेटर बुनने में ही निकल जाती हैं... अब तो मार्केट से ही स्वेटर खरीद लेते हैं...
सही कह रहे है गोपाल जी आप। मां के हाथों की गर्माहट ही उस स्वेटर की गर्माहट हुआ करती है। लेकिन आजकल बाज़ार के स्वेटर में वो गर्माहट नहीं मिल पाती है हां ठंड ज़रुर रुक जाती है
ओह बहुत ही भावपूर्ण पोस्ट ।
कितनी ही यादें माँ के हाथो बने स्वेटर की ...
आपके इस लेख ने बेहद ही भावनात्मक अतीत में पहुंचा दिया।