यूं तो रविवार के दिन सार्वभौमिक अवकाश घोषित है लेकिन जिस संस्थान मे मैं कार्यरत हूँ वहाँ मुझे ये बोध हुआ की मैं उस सौर्वभौम की परिधि मे नहीं आता हूँ….मेरे लिए रविवार का अवकाश उन प्रजातियों की भाँति है जो लुप्त प्राय हैं….लेकिन बीता हुआ रविवार मेरे लिए ऐसा था जैसे मुझे दुर्लभ प्रजाति का कोई जीव दिख गया हो अर्थात उस दिन मेरा अवकाश था….पूरा दिन इसी सोच मे निकल गया की दिन का सदुपयोग कैसे करूँ, लेकिन संध्या समय अपवाद के रूप मे सम्मुख आया….संध्याकाल मे मैं अपने मित्र जसविंदर के साथ अनौपचारिक भ्रमण पर निकला… रोज़ की तरह सड़के काफ़ी व्यस्त थी….मालूम नहीं ये सड़के आराम कब करती होंगी….एक से बढ़कर एक चमचमाती गाड़ियाँ दिल्ली की विधवा सड़कों के सीने को रौंन्दती हुई उस पड़ाव की ओर बढ़ रही थी जिसे वो छद्म मंज़िल का नाम देते हैं…ऐसा नहीं था की सभी गाड़ियाँ उसी वक़्त शोरुम से निकली हों मगर उन गाड़ियों के जिस्म की चमक विशेषकर फ्रंट ग्लास की चमक अनायास ही अपनी ओर आकर्षित कर रही थी…
मैं बरबस इस दृश्य को देख रहा था कि मन में एक प्रश्न उठा……दिल्ली की सड़कों पर दौड़ने वाला हर चौपहिया वाहन (बस, ट्रक और कुछ सरकारी वाहनो को छोड़कर) हमेशा चमचमाता क्यों प्रतीत होता है….तभी मेरी आँखे चमक उठी…..उत्तर तो मिल गया लेकिन उस उत्तर ने एक और प्रश्न को भी जन्म दे दिया…..इस मामले में मैं ग़लत हो सकता हूँ….लेकिन मैने ऐसा देखा है…..मेरे पड़ोस मे एक सुंदर महिला रहती हैं उनके पास भी अपनी कार है और वो हर सुबह उस पानी से….माफ़ कीजिए पानी की कई बाल्टियों से धोती हैं और जब वो कार सड़क पर निकलती है तो उन महिला का सौंदर्य उस कार के यौवन के सामने थोड़ा फीका लगता है….बहरहाल, मुझे लगता है की दिल्ली में जिस किसी के भी पास गाड़ी है…वो उसे बजाय सूखे या गीले कपड़े से पोंछने के पानी से धोना पसंद करते हैं…मानो अगर ऐसा नहीं किया तो उस कार की आत्मा आपसे रूठ जाएगी…और कार चलने से मना कर देगी….उस छद्म दिखावे में लोग ये भूल जाते हैं कि उनके द्वारा प्रयोग (दुरुपयोग) की जा रही पानी की एक-एक बाल्टी, एक-एक मग यहाँ तक कि एक-एक बूँद के पीछे सड़कों पर पैदल चलने वाली आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा प्यासा रह जाता है….एक ऐसा तबका प्यासा रहता है जिसके अंदर सचमुच की आत्मा का वास है….." आत्माधारी इन लोगों को पानी ना मिलने पर जो उनसे रूठ सकती है".ये आपकी काबिलियत है, आपकी मेहनत है की आप एक, दो, चार या जितने चाहे वाहन रख सकते हैं…लेकिन उनकी साज-सज्जा के लिए कम से कम किसी को प्यासा तो मत रखिए……देश में वर्तमान समय में पानी की कितनी समस्या है ये जगजाहिर है….क्षण भर के लिए उनके बारे में सोचिए जिन्हें पीने को पानी नहीं मिलता या जो गंदा पानी पीने को विवश हैं……जल के इस दुरुपयोग से आप अपनी गाड़ी के फ्रंट ग्लास को तो चमका सकते हैं….मगर इससे आपकी आत्मा और देश दोनों की चमक धुंधली हो रही है……।
मैं बरबस इस दृश्य को देख रहा था कि मन में एक प्रश्न उठा……दिल्ली की सड़कों पर दौड़ने वाला हर चौपहिया वाहन (बस, ट्रक और कुछ सरकारी वाहनो को छोड़कर) हमेशा चमचमाता क्यों प्रतीत होता है….तभी मेरी आँखे चमक उठी…..उत्तर तो मिल गया लेकिन उस उत्तर ने एक और प्रश्न को भी जन्म दे दिया…..इस मामले में मैं ग़लत हो सकता हूँ….लेकिन मैने ऐसा देखा है…..मेरे पड़ोस मे एक सुंदर महिला रहती हैं उनके पास भी अपनी कार है और वो हर सुबह उस पानी से….माफ़ कीजिए पानी की कई बाल्टियों से धोती हैं और जब वो कार सड़क पर निकलती है तो उन महिला का सौंदर्य उस कार के यौवन के सामने थोड़ा फीका लगता है….बहरहाल, मुझे लगता है की दिल्ली में जिस किसी के भी पास गाड़ी है…वो उसे बजाय सूखे या गीले कपड़े से पोंछने के पानी से धोना पसंद करते हैं…मानो अगर ऐसा नहीं किया तो उस कार की आत्मा आपसे रूठ जाएगी…और कार चलने से मना कर देगी….उस छद्म दिखावे में लोग ये भूल जाते हैं कि उनके द्वारा प्रयोग (दुरुपयोग) की जा रही पानी की एक-एक बाल्टी, एक-एक मग यहाँ तक कि एक-एक बूँद के पीछे सड़कों पर पैदल चलने वाली आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा प्यासा रह जाता है….एक ऐसा तबका प्यासा रहता है जिसके अंदर सचमुच की आत्मा का वास है….." आत्माधारी इन लोगों को पानी ना मिलने पर जो उनसे रूठ सकती है".ये आपकी काबिलियत है, आपकी मेहनत है की आप एक, दो, चार या जितने चाहे वाहन रख सकते हैं…लेकिन उनकी साज-सज्जा के लिए कम से कम किसी को प्यासा तो मत रखिए……देश में वर्तमान समय में पानी की कितनी समस्या है ये जगजाहिर है….क्षण भर के लिए उनके बारे में सोचिए जिन्हें पीने को पानी नहीं मिलता या जो गंदा पानी पीने को विवश हैं……जल के इस दुरुपयोग से आप अपनी गाड़ी के फ्रंट ग्लास को तो चमका सकते हैं….मगर इससे आपकी आत्मा और देश दोनों की चमक धुंधली हो रही है……।
"चमचमाती गाड़ियाँ दिल्ली की विधवा सड़कों के सीने को रौंन्दती हुई उस पड़ाव की ओर बढ़ रही थी जिसे वो छद्म मंज़िल का नाम देते हैं"
क्या सुंदर लाइने लिखी हैं भाई आपने.....बहुत अच्छा.......
रोचम अंदाज़ में एक बेहद गंभीर विषय को उठाया है आपने...