गोपाल सिंह नेगी
मैं मद्यपान करने का पक्षधर तो नहीं हूँ लेकिन कुछ विशेष अवसरों पर……माफ़ कीजिए…..कुछ अवसरों को विशेष बनाकर मित्रों के साथ बीयर पान कर लेता हूँ। अक्सर जब आप किसी नये शख्स से मुखातिब होते हैं, बातों का सिलसिला बड़ता है। घनिष्ठता बढ़ते ही आम मनोविज्ञान के तहत आप या आपका मित्र आपसे एक सामान्य प्रश्न पूछता है। संभव है कि आपसे ये सवाल नहीं पूछा जाता हो, लेकिन मुझसे तो लोग पूछते हैं... सवाल होता है, "क्या आप ड्रिंक करते हैं?" आँखों मे चमक ओर भाव मे मादकता के साथ मैं भी उत्तर दे देता हूँ, "जी कभी कभी बीयर पी लेता हूँ... और आप?????"इस प्रश्न के बाद मैं दो ही प्रकार के उत्तर की अपेक्षा करता हूँ…..पहला- हां और दूसरा- नहीं….लेकिन अक्सर मुझे एक तीसरा जवाब सुनने को मिलता है……"जनाब हमारे मज़हब मे ये हराम है".सच कहूँ तो बड़ा नागवार गुज़रता है ये जवाब…। आप उक्त प्रश्न को मज़हब से जोड़ देते हैं...बिना कुछ सोचे समझे…। अरे भाई वेदों, पुराणों, उपनिषदों, गुरु ग्रंथ साहिब, बाइबिल और दूसरे धर्म ग्रंथों मे कहीं भी ये नहीं लिखा है की शराब पिओ ये अति लाभदायक है और तुम ऐसा करने के लिए बाध्य हो…।मैं अपने अल्प ज्ञान के आधार पर आप सभी से एक प्रश्न पूछता हूँ कि विश्व के कौन से धर्म मे शराब पीने की अनुमति है? हो सकता है मुझे पता न हो लेकिन अगर आपको पता है तो कृपया मुझे अवश्य बताएं। कुछ लोगों को मेरी ये बात शूल की भाँति चुभ सकती है, कुछ छद्म धर्मनिरपेक्ष लोग इसमें मेरी सोच पर प्रश्न उठाएंगे।मगर मेरे अधिकांश मित्र ख़ान, कुरैशी और अंसारी हैं और हम सभी लोग साथ बैठकर पीते हैं। क्योंकि जब हमने दोस्ती के मज़हब के नियम बनाए तो उसमे हराम जैसा शब्द नहीं डाला…। हमारे मजहब, दोस्ती के मजहब में कुछ भी हराम नहीं...।
14 Responses
  1. Anonymous Says:

    तुम इसी तरह इस्लाम के खिलाफ लिखते रहो। कयामत के दिन तेल के कड़ाह में डाले जाआगे


  2. Anonymous Says:

    क्या है सार ये. बदमीजी है. बहुत नाम सुना था प्याले का
    ये तो सरासर गंद है


  3. Sanjay Vyas Says:

    mohalla ki raah par nikal gaye ho guru
    badhiya hai


  4. Sanjay Vyas Says:

    mohalla ki raah par nikal gaye ho guru
    badhiya hai


  5. सही कहा गोपाल जी आपने ने और मै आपकी बात से सहमत हूं कि किसी भी धर्म में मद्यपान को अच्छा नहीं बताया गया...


  6. Yachna Says:

    वाकई दोस्ती के बीच में धर्म को नहीं लाना चाहिए। लेकिन शराब बुरी चीज़ है।


  7. लो भईया मना भी किया था मेल करके की प्याला नाम के इस नये मोहल्ले में कोई गंध न बके लेकिन एक बात तो ठीक गोपाल जी की दोस्ती के बात कोई भी दूरी नहीं होना चाहिए। शराब पीना और न पीने खुद पर निर्भर करता है न कि कोई धर्म सिखायेंगा पीना और छोड़ना


  8. गोपाल भाई,
    आपकी लेखन शैली का मैं हमेशा से कायल रहा हूं। आपने बात बहुत पते की उठाई है। जो लोग इस लेख को धर्म से जोड़ रहे है शायद उन्होंने लेख को गंभीरता से नहीं पढ़ा। अमित भारद्वाज जी ने भी जल्ददबाज़ी में कमेंट किया है,, ऐसा प्रतीत होता है। एक पाठक अगर लेख में निहित भाव को नहीं समझ पाए इसके लिए दो हालात दोषी होते हैं। पहला ये कि लेखन में दोष है या फिर पाठक ने सही ढंग से नहीं पढ़ा।
    मैंने देखा है कि लेखन मे कोई कमी नहीं नज़र आ रही। पाठकों ने सही से नहीं पढ़ा।
    गोपाल जी ने इस पोस्ट में ये कहने की कोशिश की है कि मदिरा पान या ऐसे ही विषय पर आदमी को अपनी निजी राय रखनी चाहिए। अगर मदिरा पीनी गलत है तो वो इसलिए गलत नहीं होना चाहिए कि मान्यता है। बल्कि आप उसके नुकसानों से अवगत होने चाहिए और इसी वजह से आपकी राय बननी चाहिए।
    मजहब वाला मामला एक ऐसा ही उदाहरण है। अक्सर मेरे सहयोगी धूम्रपान करते हुए मेरी तरफ सिगरेट बढ़ाते हैं तो मैं इनकार करता हूं। मैं कहता हूं कि सिगरेट नहीं पीता। मेरे मित्र न तो पूछते हैं कि मैं ऐसा क्यों करता हूं और न ही मुझे कोई स्पष्टीकरण देने की ज़रूरत पड़ती है। मैं ऐसे ऑफर्स पर ये नहीं कहता कि सॉरी, मम्मी-पापा ने मना किया है।
    यानि वजह कोई भी हो, आपकी पसंद और नापसंद के लिए आपकी प्रकृति जिम्मेदार होनी चाहिए। और अगर धर्म (जो की जीवन जीने की राह दिखाता है, और अच्छी बात है कि इस्लाम ने अलग से कानून बनाकर इसे वर्जित किया है। वो बात अलग है कि इसकी अनुपालना करने वाले बहुत कम हैं। शरीयत लागू करने वाले बाकी मामलों पर तो ईश्वर के कानून की बात करते हैं लेकिन नशे के लिए सिर्फ शराब का प्रयोग नहीं करते। बदले में अफीम आदि का प्रयोग करते हैं। क्योंकि इस्लाम में उसे वर्जित नहीं किया गया) को आप आधार बना भी रहे हैं तो उन भावनाओं को ह्रदय में रखिए। क्योंकि धर्म दिल में रहना चाहिए। इस तरह के जवाब देना कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। लेकिन ये बचकाना ढंग ज़रूर है।


  9. आप की बात से सहमत हू,


  10. पीने पिलाने में मजहब कैसा..


  11. आत्म विश्वास से भरपूर एक अच्छा आलेख।


  12. Amit Says:

    सही लिखा है गोपाल जी आपने...इस तरह के जवाबों से मैं भी दो-चार हुआ हूं। कई ऐसे दोस्त भी हैं जो पीते तो हैं, मगर बीच-बीच में ये जानकारी भी देते रहते हैं कि मज़हब में हराम है। दरअसल, मैंने इस पर कभी गौर नहीं किया था। आपकी पोस्ट पढ़ी तो यादें ताज़ा हुईं। मुझे समझ में नहीं आ रहा कि इस जवाब का मतलब क्या समझा जाए.....( क्या ये कि मैं पीना तो चाहता हूं, पर इसलिए नहीं पीऊंगा क्योंकि मेरा मज़हब इजाज़त नहीं देता......या फिर ये कि तुम लोगों के मज़हब में तो कुछ भी करो, सब चलता है...लेकिन, हमारा मज़हब सर्वश्रेष्ठ है....वो ऐसी ग़लत बातों की इजाज़त नहीं देता।) ख़ैर....ये तो वही बता सकता है, जो ऐसे जवाब देता है। अगली बार अगर किसी ने ये बात कही, तो मैं ज़रूर उससे पूछूंगा। फिलहाल, मैं आदर्श की बातों से सहमत हूं कि ये व्यक्तिगत पसंद-नापसंद का विषय है, न कि किसी ख़ास मज़हब से जोड़ने का। ये बात भी सही है कि बस शराब न पीयें और दूसरे नशे करें, तो आप महान नहीं समझे जाएंगे। मुसीबत ये है कि मज़हब एक अतिसंवेदनशील और आस्था का मामला है। इस पर जब कोई खुले तौर पर अपने विचार रखता है, तर्क देता है या किसी भी तरह की कोई टिप्पणी करता है, तो कट्टरपंथी तुरत-फुरत उसे धर्म का गुनहगार ठहरा देते हैं। अपने ज़माने के कई मशहूर शायरों को काफ़िर कहा गया है। उर्दू शायरी में कई ऐसे महान शायर हुए हैं जो शराब पीते थे। मसलन ग़ालिब, जौक़, मजाज़ लखनवी, इक़बाल, जिगर मुरादाबादी, अकबर इलाहाबादी आदि-आदि। न सिर्फ़ शराब पीने-पिलाने पर, उस दौर में फैली कई कुरीतियों और लोगों के दिमाग पर पड़ा परदा हटाने के लिए इन शायरों ने बेहतरीन शायरी भी की हैं। क्या जवाब देंगे, जब जौक़ पूछते हैं...."ज़ाहिद शराब पीने से क़ाफिर हुआ मैं, क्या डेढ़ चुल्लू पानी में ईमान बह गया ? ऐसे ही अमीर मीनाई लिखते हैं...मस्जिद में बुलाता है हमें जाहिदे-नाफहम । होता अगर कुछ होश तो मैखाने ना जाते।। इक़बाल कहते हैं - ज़ाम पीता हूं, मुंह से कहता हूं बिस्मिल्लाह, कौन कहता है रिंदो को ख़ुदा याद नहीं। लेकिन, तथाकथित ठेकेदारों के ये बातें कहां समझ आएंगी। गोपाल सिंह नेगी ने कोई आपत्तिजनक बात नहीं कही है, बावजूद इसके ये बातें कुछ लोगों को चुभेंगी और वो बेनामी बनकर गरियाते रहेंगे। ऐसे लोगों के लिए सबसे सटीक वही लाइनें दोहराना चाहूंगा जो मेरे ही क्षेत्र के एक मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी ने अरसे पहले लिखी थीं...........'सूरज में लगे धब्बा फ़ितरत के करिश्मे हैं, बुत हमको कहें काफ़िर अल्लाह की मर्जी है"।


  13. Unknown Says:

    I am surprise.......
    why this thought is not came on my mind......


    good bro...


  14. Anonymous Says:

    keep write and keep drink