कल देर रात
ऑफिस से लौटते वक्त
अचानक आसमान पर नज़र गई
हल्का सा धुंधलका,
एक वलय
और मध्य में चमकता हुआ चांद
रक्षाकवच से घिरा हो जैसे...
कदम ठिठके
निगाहें थमीं
अपलक देखता रहा ....
ये वही चांद है
देखा था पिछली बार जिसे
अपने घर के आंगन से,
उस शाम
सीढ़ियों पर बैठा मैं
देर तक निहारता रहा था इसे....
लेकिन
क्या हो रहा है ये,
घर से इतनी दूर
दिल्ली में कैसा अनुभव?
हवा में ये खुशबू
ये महक....
ये तो मेरे घर आंगन में खिले फूलों की है...........
ये ठंडक
हिमाच्छादित पहाड़ियों की है
जो दिखती हैं
मेरे घर के ठीक सामने...
दूर से आती ये आवाज़....
घर के पास से बहती जलधारा की है,
ये संगीत
ऊंचाई से पत्थरों पर गिरते पानी का है.....
ये भ्रम तो नहीं
कहीं कोई सपना तो नहीं देख रहा मैं
ये सोचकर निगाह हटाई,
आस-पास देखा
तो सब कुछ गायब था...
सड़क पर अकेला खड़ा था मैं
बगल में एक कुत्ता
जीभ लटकाए
अचरज से मुझे घूर रहा था..
स्वप्न ही था........
चांद वही था
बस परिवेश जुदा था
मैंने फिर ध्यान लगाया,
फिर कोशिश की
कि शायद फिर से वही अहसास हो,
मेरा घर मेरे पास हो
लेकिन चांद ने फिर वह जादू नहीं किया,
चांद धुंधला हो गया,
झिलमिलाने लगा,
कुहासे या बादलों से नहीं,
मेरे आंसुओं से
जो अनायास ही भर आए थे आंखों में
और ढुलक पड़े गालों पर
मैं रोया, बहुत रोया
बस चीख नहीं सका
शायद आवाज़ की तीव्रता
आंसुओं की तेज़ धार में बदल गई थी...
ऑफिस से लौटते वक्त
अचानक आसमान पर नज़र गई
हल्का सा धुंधलका,
एक वलय
और मध्य में चमकता हुआ चांद
रक्षाकवच से घिरा हो जैसे...
कदम ठिठके
निगाहें थमीं
अपलक देखता रहा ....
ये वही चांद है
देखा था पिछली बार जिसे
अपने घर के आंगन से,
उस शाम
सीढ़ियों पर बैठा मैं
देर तक निहारता रहा था इसे....
लेकिन
क्या हो रहा है ये,
घर से इतनी दूर
दिल्ली में कैसा अनुभव?
हवा में ये खुशबू
ये महक....
ये तो मेरे घर आंगन में खिले फूलों की है...........
ये ठंडक
हिमाच्छादित पहाड़ियों की है
जो दिखती हैं
मेरे घर के ठीक सामने...
दूर से आती ये आवाज़....
घर के पास से बहती जलधारा की है,
ये संगीत
ऊंचाई से पत्थरों पर गिरते पानी का है.....
ये भ्रम तो नहीं
कहीं कोई सपना तो नहीं देख रहा मैं
ये सोचकर निगाह हटाई,
आस-पास देखा
तो सब कुछ गायब था...
सड़क पर अकेला खड़ा था मैं
बगल में एक कुत्ता
जीभ लटकाए
अचरज से मुझे घूर रहा था..
स्वप्न ही था........
चांद वही था
बस परिवेश जुदा था
मैंने फिर ध्यान लगाया,
फिर कोशिश की
कि शायद फिर से वही अहसास हो,
मेरा घर मेरे पास हो
लेकिन चांद ने फिर वह जादू नहीं किया,
चांद धुंधला हो गया,
झिलमिलाने लगा,
कुहासे या बादलों से नहीं,
मेरे आंसुओं से
जो अनायास ही भर आए थे आंखों में
और ढुलक पड़े गालों पर
मैं रोया, बहुत रोया
बस चीख नहीं सका
शायद आवाज़ की तीव्रता
आंसुओं की तेज़ धार में बदल गई थी...
चांद धुंधला हो गया,
झिलमिलाने लगा,
कुहासे या बादलों से नहीं,
मेरे आंसुओं से
जो अनायास ही भर आए थे आंखों में
और ढुलक पड़े गालों पर
बहुत ही मार्मिक ......एक अच्छी रचना .....
क्या आदर्श जी बहुत भावुक हो रहे हैं...कभी कभी ऐसी भी होता है....अच्छी कविता
बहुत बढ़िया लिखा है .....बडके .....डेल्ही आई जो नाम करना
मार्मिक कविता... आदर्श जी घर से बिछड़ने का दुःख सबमे होता है... लेकिन नीड़ की विरह में सब इस तरह की न तो सुन्दर कविता लिख पाते हैं... और कई तो रो भी नहीं पाते....
बधाई....!!!
bahut hi marmik chitran .......dil ko choo gayi rachna.
kabi mere junction pe bhi ayo
http://apanajunction.blogspot.com/
आप ने फ़िर से घर की याद दिला दी....
एक भावुक कविता
bahut marmik rachna
nice post like ever
जो अनायास ही भर आए थे आंखों में
और ढुलक पड़े गालों पर
बहुत ही मार्मिक रचना है ये
मेरे ब्लॉग पर भी आएं
बहुत ही मार्मिक रचना है जानकर खुशी हुई कि आप हिमाचल मेरी जन्मभूमि से हैं बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति हैआअपकी कविता पढ कर अपने घर की याद आ गयी आभार्
Bohot sundar....apnon se bichhadte hue, jab ham aansoon chhupaaneki koshish karte hain...aankhen bhar aatee hain...aur hont muskuraneki koshish karte hain....saraa parivesh aisahi dgundlaa jata hai...!
umda !
uttam !
anupam kavita...............badhaai !
अच्छे भाव की कविता।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
आदर्श हम सब की यही कहानी है- अब मैं राशन की कतारों में नजर आता हूं, अपने खेतों से बिछड़ने की सजा पाता हूं-
लाजबाव रचना--