आज नई उमंगों और एक नए उत्साह से भरा हूं। बेसब्री से अपने जन्मदिन का इंतज़ार कर रहा था। सोचा था इस बार घर में जन्मदिन मनाऊंगा। लेकिन दुर्भाग्य से आज दिल्ली में ही हूं। घर से दूर जन्मदिन मनाने और अपने घर में जन्मदिन मनाने में ज़मीन आसमान का फर्क है। 5 साल से अपने जन्मदिन के मौके पर हिमाचल प्रदेश स्थित अपने घर पर मौजूद नहीं पर रहा पाया हूं। हर बार कोशिश रहती कि घर जाऊं लेकिन कभी इस महीने परीक्षाएं होती थीं, कभी इंटरव्यू तो कुछ। इस बार फिर परीक्षाओं ने पंगा डाल दिया।
जून महीना आते ही मैं अलग उत्साह से भर जाता था। हालांकि मैं त्योहारों या अन्य उत्सवों के मौके पर ज्यादा उत्साहित नहीं होता हूं लेकिन अपना जन्मदिन आने पर एक नया जोश सा छा जाता है। जन्मदिन एकमात्र ऐसा उत्सव है जो आपके लिए है। आप इसे अपने इच्छा से अपने मनमाफिक ढंग से मनाने के लिए स्वतंत्र हैं। होली, दीवाली आदि की तरह किसी निश्चित परंपरा का पालन नहीं करना पड़ता। लेकिन हिमाचल प्रदेश में जन्मदिन मनाने का एक अलग अंदाज़ है। चलिए अपना अनुभव बताता हूं कि 5 साल पहले तक किस तरह से जन्मदिन मनाता था मैं।
कई दिन पहले से ही पुरोहित जी को संदेशा भिजवा दिया जाता कि फ्लां तारीख को जन्मदिन है और आपको आना है। जन्मदिन के मौके पर पहनने के लिए बाज़ार से कुर्ता-पायजामा सिलवाने के लिए कपड़ा लेकर दर्जी को दे दिया जाता था। जन्मदिन से एक दिन पहले ही नवग्रह पूजा के लिए 9 किस्म के अन्न की अलग-अलग पोटली बना दी जाती थी। पूजा का सामान भी लाकर रख दिया जाता। जन्मदिवस वाली सुबह मैं खुद से ही जल्दी जग जाया करता था वरन् बाकी मौकों पर घर वाले जगा-जगा कर थक जाते थे लेकिन मैं टस से मस नहीं होता था। सुबह उठता तो पहले से ही नहाने के इंतज़ाम किए रहते थे। साबुन, तेल के अलावा एक डब्बा दही भी रखी रहती। नहाने से पहले माता जी सात किस्म के अनाज से भरे हुए दोने (इसे स्थानीय भाषा में सतनाजा कहते हैं) को मेरे सिर और पैर तक सात बार घुमाती थीं। इसके बाद इस दोने को गांव के किसी चौराहे पर रख दिया जाता। माना जाता है कि इस तरह करने से ग्रहदोष नष्ट हो जाता है। इसके बाद शुरु होता था शाही स्नान। सबसे पहले दही से नहाता था और उसके बाद साबुन से। दही की गंध और चिकनाई से मुक्ति पाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती थी। स्नानादि के बाद कुर्ता-पायजामा पहनता और सीधा रसोई घर का रुख करता। रसोईघर में हल्वा और मीठी रोटियां बन रही होतीं। इन छोटी-छोटी मीठी रोटियों को हमारे वहां मिट्ठु कहते हैं और बाकी जगहों पर ये ठेकुआ नाम से प्रसिद्ध हैं। मुंह में पानी तो बहुत आता लेकिन कुछ खा नही सकता। जब तक पुरोहित जी पूजा नहीं करवाते तब तक मुझे भूखे पेट ही रहना होता था। अब पुरोहित जी का इंतज़ार करता। वो भी 11 बजे के करीब पहुंचते। इसके बाद शुरु होता पूजा-पाठ। सभी देवी-देवताओं, कुल देवी, ग्रहों आदि की पूजा की जाती। मुझे पूजा-पाठ में बहुत आनंद आता है। जिस दौरान पुरोहित मंत्रोच्चारण करते, आमंत्रित की गई महिलाएं लोकगीत गाती रहतीं। मेरी इच्छा रहती थी कि पूजा लम्बी चले... मंत्रोच्चारण होता रहे.....। सबसे अंत में मुझे कुछ तिल दिए जाते। पुरोहित उन्हें बोने का आदेश देते। यह पूजा की अंतिम क्रिया होती है। मैं खुश होता.... पुरोहित जी के चरण स्पर्श करता.... तिलों को सामने की क्यारियों में बो देता और घर के सभी बड़ों के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेता। इसके बाद शुरु होती पेट पूजा। खान-पान के बाद मिट्ठु और हल्वे के पूड़े बनाए जाते जिन्हें पूरे गांव परीचितों को देने के लिए निकलता था। इसके साथ ही रात्रिभोज का निमंत्रण भी दिया करता था। शाम होते ही मेहमान आने लगते थे। खुद ही ढोलक-चिमटा लिया और भजन-कीर्तन गाए जाते। इसके बाद खाना खाया जाता और उसके बाद नाचना गाना। लोकगीतों की धुनों पर थिरकने का आनंद ही कुछ और है। साथ में गाना-बजाना, बातें करना.... कितना अच्छा लगता था.....। ये दौर रात बारह-एक बजे तक चलता। इसके बाद सभी अपने-अपने घर लौट जाते।
वाकई गांव कितने अच्छे हैं... पुरानी परंपराएं सामाजिकता को जोड़े हुए है। लेकिन यहां शहरों में सब कृत्रिम सा लगता है। लोगों की आस-पड़ोस वालों से मित्रता नहीं दुश्मनी होती है। किसी की खुशी-ग़म में शरीक होने नहीं जाते लोग। तभी तो मन करता है मेरा... कि छोड़ दूं ये 'आधुनिक' शहर और लौट चलूं गांव की ओर.....
जून महीना आते ही मैं अलग उत्साह से भर जाता था। हालांकि मैं त्योहारों या अन्य उत्सवों के मौके पर ज्यादा उत्साहित नहीं होता हूं लेकिन अपना जन्मदिन आने पर एक नया जोश सा छा जाता है। जन्मदिन एकमात्र ऐसा उत्सव है जो आपके लिए है। आप इसे अपने इच्छा से अपने मनमाफिक ढंग से मनाने के लिए स्वतंत्र हैं। होली, दीवाली आदि की तरह किसी निश्चित परंपरा का पालन नहीं करना पड़ता। लेकिन हिमाचल प्रदेश में जन्मदिन मनाने का एक अलग अंदाज़ है। चलिए अपना अनुभव बताता हूं कि 5 साल पहले तक किस तरह से जन्मदिन मनाता था मैं।
कई दिन पहले से ही पुरोहित जी को संदेशा भिजवा दिया जाता कि फ्लां तारीख को जन्मदिन है और आपको आना है। जन्मदिन के मौके पर पहनने के लिए बाज़ार से कुर्ता-पायजामा सिलवाने के लिए कपड़ा लेकर दर्जी को दे दिया जाता था। जन्मदिन से एक दिन पहले ही नवग्रह पूजा के लिए 9 किस्म के अन्न की अलग-अलग पोटली बना दी जाती थी। पूजा का सामान भी लाकर रख दिया जाता। जन्मदिवस वाली सुबह मैं खुद से ही जल्दी जग जाया करता था वरन् बाकी मौकों पर घर वाले जगा-जगा कर थक जाते थे लेकिन मैं टस से मस नहीं होता था। सुबह उठता तो पहले से ही नहाने के इंतज़ाम किए रहते थे। साबुन, तेल के अलावा एक डब्बा दही भी रखी रहती। नहाने से पहले माता जी सात किस्म के अनाज से भरे हुए दोने (इसे स्थानीय भाषा में सतनाजा कहते हैं) को मेरे सिर और पैर तक सात बार घुमाती थीं। इसके बाद इस दोने को गांव के किसी चौराहे पर रख दिया जाता। माना जाता है कि इस तरह करने से ग्रहदोष नष्ट हो जाता है। इसके बाद शुरु होता था शाही स्नान। सबसे पहले दही से नहाता था और उसके बाद साबुन से। दही की गंध और चिकनाई से मुक्ति पाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती थी। स्नानादि के बाद कुर्ता-पायजामा पहनता और सीधा रसोई घर का रुख करता। रसोईघर में हल्वा और मीठी रोटियां बन रही होतीं। इन छोटी-छोटी मीठी रोटियों को हमारे वहां मिट्ठु कहते हैं और बाकी जगहों पर ये ठेकुआ नाम से प्रसिद्ध हैं। मुंह में पानी तो बहुत आता लेकिन कुछ खा नही सकता। जब तक पुरोहित जी पूजा नहीं करवाते तब तक मुझे भूखे पेट ही रहना होता था। अब पुरोहित जी का इंतज़ार करता। वो भी 11 बजे के करीब पहुंचते। इसके बाद शुरु होता पूजा-पाठ। सभी देवी-देवताओं, कुल देवी, ग्रहों आदि की पूजा की जाती। मुझे पूजा-पाठ में बहुत आनंद आता है। जिस दौरान पुरोहित मंत्रोच्चारण करते, आमंत्रित की गई महिलाएं लोकगीत गाती रहतीं। मेरी इच्छा रहती थी कि पूजा लम्बी चले... मंत्रोच्चारण होता रहे.....। सबसे अंत में मुझे कुछ तिल दिए जाते। पुरोहित उन्हें बोने का आदेश देते। यह पूजा की अंतिम क्रिया होती है। मैं खुश होता.... पुरोहित जी के चरण स्पर्श करता.... तिलों को सामने की क्यारियों में बो देता और घर के सभी बड़ों के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेता। इसके बाद शुरु होती पेट पूजा। खान-पान के बाद मिट्ठु और हल्वे के पूड़े बनाए जाते जिन्हें पूरे गांव परीचितों को देने के लिए निकलता था। इसके साथ ही रात्रिभोज का निमंत्रण भी दिया करता था। शाम होते ही मेहमान आने लगते थे। खुद ही ढोलक-चिमटा लिया और भजन-कीर्तन गाए जाते। इसके बाद खाना खाया जाता और उसके बाद नाचना गाना। लोकगीतों की धुनों पर थिरकने का आनंद ही कुछ और है। साथ में गाना-बजाना, बातें करना.... कितना अच्छा लगता था.....। ये दौर रात बारह-एक बजे तक चलता। इसके बाद सभी अपने-अपने घर लौट जाते।
वाकई गांव कितने अच्छे हैं... पुरानी परंपराएं सामाजिकता को जोड़े हुए है। लेकिन यहां शहरों में सब कृत्रिम सा लगता है। लोगों की आस-पड़ोस वालों से मित्रता नहीं दुश्मनी होती है। किसी की खुशी-ग़म में शरीक होने नहीं जाते लोग। तभी तो मन करता है मेरा... कि छोड़ दूं ये 'आधुनिक' शहर और लौट चलूं गांव की ओर.....
वाह आदर्श्जी आप तो मेरि जन्म्भूमी हिमाचल् से हो तो जरूर भतीजे लगते हो मै तो बैठे बिठाये बुआ बन गयी् तो पहले बुआ का जन्म हुआ मुझे भी दो बधाई
जन्म दिन बहुत बहुत मुबारक हो भगवान तुम्हें हर खुशी दे बधाई
भाई जन्म दिन की बहुत बहुत्ज़ बधाई,एक बात मै आज भी यहां गांव मै ही रहता हुं, कारण साफ़ शहर की जिन्दगी मै कडबाहट ओर १००% मिलावट ही मिलावट है.
आप का जन्म दिन मनाने का ढंग बहुत प्यारा लगा, चलिये अगले जन्म दिन को अच्छी तरह से मनाये घर वालो के संग
Gawan ko yaad karne ke liye shukriya. bhai, jeevan to gawan me hee hai, shhar me to bas gati hai... H B D to U
सर्वप्रथम तो जन्मदिन पर हमारी शुभकामनाएं. जीवन यापन के लिए अपने प्यारे गाँवों को छोडना पड़ जाता है.आपके यहाँ जन्मदिवस पर किये जाने वाले आयोजनों को जाना और बहुत अच्छा लगा.
क्या बेहतरीन लोकरीति है आपके यहां जन्मदिन मनाने की...पढ़कर मज़ा आ गया। साथ ही उभरी पंडोह में बिताए दिनों की कुछ यादें।
अच्छी परंपरा, बेहतरीन लेख।
majaa aa gayaa lekh padakar ...exams finish hote hi ghar ghoom aana
तुम्हारे गांव की पारंपरिक तरीके से जन्मदिन मनाने की रीति सचमुच मुझे भा गई...मौका मिला...तो अगले जन्मदिन पर चलूंगा तुम्हारे साथ..तुम्हारे गांव...देखूंगा....गांव की पारंपरिक राति....और दर्शन करूंगा उस गांव के...जहां संस्कार आज भी जीवित हैं....भले ही बूढ़े हो चले हों पर उनके चेहरे का तेज उन्हें बुढ़ा नहीं कह सकता...आदर्श....तुम धन्य हो....तुम्हारे गांव में संस्कार अब भी लहलहा रहे हैं....
आदर्श जी सचमुच आपके गांव में जन्मदिन एक अलग ढ़ंग से मनाया जाता है....ये सच है कि गांव में आज भी हमारी संस्कृति और परंपराएं जीवित है....जो शहरों में कभी की मर चुकी है....