Aadarsh Rathore
सूरज की पहली किरण के साथ
हर रोज़ जन्म लेता है वो सपना !
दोपहर तक
देखता हूं उसे नए रंग में
करता हूं कोशिश,
विचारों में संजोकर
हकीकत में बदलने की।
शाम तक
होती है जद्दोजहद
सपनों में प्राण भरने की...
लेकिन
होता है कदम-कदम पर
राजनीति का शिकार
और सूरज ढलते ही
गिर पड़ता है असहाय होकर

तोड़ देता है दम वह
थक-हारकर आखिरकार..
अंतत: सोने से पहले
सीने मे जलती आग में
कर देता हूं भावशून्य हो
उस सपने का अंतिम संस्कार...
4 Responses
  1. अजीब सपने हैं साहब रोज जीते मरते हैं। सुबह को सूरज के साथ आते हैं और रोज रात को अंतिम संस्कार करना पड़ता है। अजीब बात है और खर्चीला काम भी।


  2. Anonymous Says:

    आग में कोई चीज दफन नहीं होती, बल्कि खाक होती है। खैर, पाश ने कहा था कि सबसे खतरनाक होता है सपनों को मर जाना। मेरा भी मानना है कि सपनों को मारने के बजाए उसे उम्मीद बनाएं। आखिरी कुछ पंक्तियों में निराशावाद की झलक मिल रही है। इससे बाहर निकलिए। हर चीज के दो पहलू होते हैं,अच्छे पहलुओं के साथ जीना सीखिए। सपनों को हथियार बनाइए। -अजय शेखर प्रकाश


  3. उम्दा रचना
    ऊपर वाले अज्ञात शख्स शायद सतही रूप से सोच रहे हैं। आग में दफन होने का अर्थ बहुत गूढ़ है। आग में जलकर खाक तो होना है ही है, लेकिन उससे पहले आग के बीच में दफन हकर घुटने में एक अलग दर्द छिपा है। सपनों की दोहरी मौत...


  4. Anonymous Says:

    लगता है इस रचना पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले पत्रकार बंधु को शब्दों की तकनीकी समझ नहीं है। इसलिए कब्र की बजाए आग में किसी चीज को बार-बार दफन कर रहे हैं। रचना को मैंने खारिज नहीं किया है। रचना की आखिरी पंक्तियों से मै इत्तेफाक नहीं रखता। इसलिए इस रचना की बेहतरी के लिए ही मैंने सुझाव दिए थे। और मैं कोई अज्ञात शख्स भी नहीं हूं, मेरा नाम भी इस प्रतिक्रिया के साथ साफ-साफ शब्दों में लिखा हुआ है।-अजय शेखर प्रकाश