जागरण के पत्रकार जरनैल सिंह ने जो किया उसमें उनका आक्रोश निकला। वही आक्रोश जो देश भर की जनता के मन में दबा पड़ा है। मामला सिर्फ सिख दंगों का ही नहीं है। आज तक का इतिहास निकाल कर देख लीजिए। बताइए कि किस सामूहिक नरसंहार के मामले में आज तक कोई हल निकला है। 25 साल पहले हज़ारों आदमियों को कत्ल कर दिया जाता है और उनका दोषी कोई भी नहीं। आयोग पर आयोग बैठते हैं, रिपोर्ट्स पर रिपोर्ट्स आती हैं लेकिन हल कोई नहीं। जांच आयोग और एजेंसिया सरकार के इशारों पर नाचती रहती है। पार्टी कोई भी हो लेकिन इन मामलों पर साफ रिपोर्ट इसलिए नहीं निकालती कि कहीं वोट बैंक पर असर न पड़े। जांच एजेंसिया 25 साल से क्या झक्क मारती रही? पच्चीस साल तक मामले को रगड़ने के बाद कोर्ट में कहा जाता है कि हमारे पास कोई साक्ष्य नहीं है इसलिए मामले को बंद कर दिया जाए। अरे दूसरों की नहीं तो कम से कम अपने दिल की तो आवाज़ सुनो...। सीबीआई की स्थिति आज क्या है, बच्चा-बच्चा जानता है। आरुषि हत्याकांड में हर रोज़ सीबीआई ने अपनी नई कहानी सुनाई। अब वो केश इतना उलझ गया है कि खुद भगवान भी चाहे तो असल दोषियों को नहीं ढूंढ सकता। लोग कहते हैं सीबीआई माने करप्ट ब्यूरो ऑफ इंडिया। आप क्या सोचते हैं कि सिर्फ पुलिस भ्रष्ट है? नहीं भाई, पुलिस वाले तो इस तालाब की छोटी मछलियां हैं, सीबीआई तो मगरमच्छ है जो बड़े मामलों पर हाथ साफ करती है। सत्ता के हाथ की कठपुतली बनी सीबीआई ने एक बार फिर साबित कर दिया कि उससे कोई उम्मीद रखना बेमानी है। जो मामला सीबीआई के हाथ में चला जाए उसमें न्याय की उम्मीद करना सही नहीं है। आज तक जितने भी बड़े मामले सीबीआई के हाथ में गए उनका कुछ अता-पता नहीं चला।
जरनैल सिंह जी ने विरोधस्वरूप जूता उछाला भर था। उनका असल निशाना चिदंबरम नहीं बल्कि समस्त नेताओं की मानसिकता थी। वही मानसिकता जो जनता को बेवकूफ समझकर हर बार उसका फायदा उठाना चाहती है। इस मामले को जॉर्ज बुश वाले प्रकरण से जोड़ना भी सही नहीं। जरनैल सिंह एक वरिष्ठ पत्रकार हैं। उन्हें कोई ज़रूरत नहीं थी इस तरह की हरकत करने की। उन्हें अपनी जिम्मेदारियों का भली-भांति बोध है। उन्होंने जो कदम उठाया वो देश की जनता के मन में दबे गुस्से का ही प्रतीक है। मुझे पता है जरनैल सिंह के इस कदम पर विरोध के स्वर ज्यादा उठेंगे। कई लोग पत्रकार होने की मर्यादा और नैतिकता को बोध कराने की कोशिश करेंगे। हम भारतीय नैतिकता और सामजिकता के छद्म चोले को ओढ़कर ही सब सोचते रहते हैं। लेकिन इस मामले को हमें दूसरे तरीके से सोचना होगा। जरनैल सिंह एक बेहतर पत्रकार हैं और एक भावनात्मक इंसान भी। उनके दिल में भी वही दर्द है जो जनता के दिल में है। वरन् आज के पत्रकार और भावना में कोई सम्बन्ध ही नही दिखाई देता। पत्रकारिता पूर्णत: व्यवसाय बन गई है जहां इमोशन्स और आदर्शों के लिए कोई जगह नहीं है। हां, नैतिकता का भाषण झाड़ने और जनसरोकर की बातों पर घड़ियाली आंसू बहाने वाले पत्रकारों की भी कमी नहीं है। लेकिन ये वही लोग हैं जो कंपनी पॉलिसीज़ का हवाला देखर खबरों को गला घोंट दिया करते हैं लेकिन बाद में पत्रकारिता के मूल्यों पर बड़ा सा लेख छाप देते हैं। हकीकत ये है पत्रकारिता क्लर्क वाला पेशा हो गया है। कम ही लोग हैं जनता के बीच जाकर उनकी समस्याओं को समझ पाते हैं। देखा जाए तो नेता और पत्रकार एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हो गए हैं। नेताओं को जनता से वोट चाहिए और पत्रकारों को नोट। जनता पत्रकारों के लिए सिर्फ और सिर्फ ग्राहक बन कर रह गई है। नेता और पत्रकार दोनों मिलकर जनता का इस्तेमाल कर रहे हैं। फिर जनता का दर्द समझेगा कौन। रोज़ की रुटीन में बंधकर हरकोई पत्थर दिल हो गया है।
आज हर कोई आज नेताओं को जूतियाने और लतियाने की बात करता है। ज्यादातर लोग नेताओं को गाली बकते नज़र आते हैं लेकिन कोई ऐसा नहीं जो नेताओं के सामने जाकर अपने विचारों को मूर्त रूप दे सके। ऐसे में जरनैल सिंह जी के इस काम से नेताओं में एक डर ज़रूर पैदा होगा कि अगर वो कुछ गलत करेंगे तो जनता जूता खोलकर मारने दौड़ेगी। नेताओं को नारेबाज़ी, धरने, विरोध, आत्मदाह आदि से कोई फर्क नहीं पड़ता। वजह ये कि इन सभी तरीकों में उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता, फर्क पड़ता है तो सिर्फ आम जनता को। मैं तो जरनैल सिंह के इस कदम को एक नए युग का सूत्रपात मानता हूं। ये लाल चड्डियां भेजने वाले अश्लील तरीके और नक्सलवादी हिंसा से तो बेहतर और कारगर तरीका है। एक क्रांतिकारी तरीका जो भारत को एक नई दिशा दे सकता है। हां, चिदंबरम एक अच्छे नेता हैं, उनके साथ ऐसा नहीं होना चाहिए था। मैं जानता हूं कि ज्यादातर लोग मेरे इन विचारों को बेवकूफाना और अपरिपक्वता करार देंगे, लेकिन उनसे मेरी विनती है कि नैतिकता के लबादे से बाहर आकर सोचकर देखें।
जय हिन्द।
जरनैल सिंह जी ने विरोधस्वरूप जूता उछाला भर था। उनका असल निशाना चिदंबरम नहीं बल्कि समस्त नेताओं की मानसिकता थी। वही मानसिकता जो जनता को बेवकूफ समझकर हर बार उसका फायदा उठाना चाहती है। इस मामले को जॉर्ज बुश वाले प्रकरण से जोड़ना भी सही नहीं। जरनैल सिंह एक वरिष्ठ पत्रकार हैं। उन्हें कोई ज़रूरत नहीं थी इस तरह की हरकत करने की। उन्हें अपनी जिम्मेदारियों का भली-भांति बोध है। उन्होंने जो कदम उठाया वो देश की जनता के मन में दबे गुस्से का ही प्रतीक है। मुझे पता है जरनैल सिंह के इस कदम पर विरोध के स्वर ज्यादा उठेंगे। कई लोग पत्रकार होने की मर्यादा और नैतिकता को बोध कराने की कोशिश करेंगे। हम भारतीय नैतिकता और सामजिकता के छद्म चोले को ओढ़कर ही सब सोचते रहते हैं। लेकिन इस मामले को हमें दूसरे तरीके से सोचना होगा। जरनैल सिंह एक बेहतर पत्रकार हैं और एक भावनात्मक इंसान भी। उनके दिल में भी वही दर्द है जो जनता के दिल में है। वरन् आज के पत्रकार और भावना में कोई सम्बन्ध ही नही दिखाई देता। पत्रकारिता पूर्णत: व्यवसाय बन गई है जहां इमोशन्स और आदर्शों के लिए कोई जगह नहीं है। हां, नैतिकता का भाषण झाड़ने और जनसरोकर की बातों पर घड़ियाली आंसू बहाने वाले पत्रकारों की भी कमी नहीं है। लेकिन ये वही लोग हैं जो कंपनी पॉलिसीज़ का हवाला देखर खबरों को गला घोंट दिया करते हैं लेकिन बाद में पत्रकारिता के मूल्यों पर बड़ा सा लेख छाप देते हैं। हकीकत ये है पत्रकारिता क्लर्क वाला पेशा हो गया है। कम ही लोग हैं जनता के बीच जाकर उनकी समस्याओं को समझ पाते हैं। देखा जाए तो नेता और पत्रकार एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हो गए हैं। नेताओं को जनता से वोट चाहिए और पत्रकारों को नोट। जनता पत्रकारों के लिए सिर्फ और सिर्फ ग्राहक बन कर रह गई है। नेता और पत्रकार दोनों मिलकर जनता का इस्तेमाल कर रहे हैं। फिर जनता का दर्द समझेगा कौन। रोज़ की रुटीन में बंधकर हरकोई पत्थर दिल हो गया है।
आज हर कोई आज नेताओं को जूतियाने और लतियाने की बात करता है। ज्यादातर लोग नेताओं को गाली बकते नज़र आते हैं लेकिन कोई ऐसा नहीं जो नेताओं के सामने जाकर अपने विचारों को मूर्त रूप दे सके। ऐसे में जरनैल सिंह जी के इस काम से नेताओं में एक डर ज़रूर पैदा होगा कि अगर वो कुछ गलत करेंगे तो जनता जूता खोलकर मारने दौड़ेगी। नेताओं को नारेबाज़ी, धरने, विरोध, आत्मदाह आदि से कोई फर्क नहीं पड़ता। वजह ये कि इन सभी तरीकों में उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता, फर्क पड़ता है तो सिर्फ आम जनता को। मैं तो जरनैल सिंह के इस कदम को एक नए युग का सूत्रपात मानता हूं। ये लाल चड्डियां भेजने वाले अश्लील तरीके और नक्सलवादी हिंसा से तो बेहतर और कारगर तरीका है। एक क्रांतिकारी तरीका जो भारत को एक नई दिशा दे सकता है। हां, चिदंबरम एक अच्छे नेता हैं, उनके साथ ऐसा नहीं होना चाहिए था। मैं जानता हूं कि ज्यादातर लोग मेरे इन विचारों को बेवकूफाना और अपरिपक्वता करार देंगे, लेकिन उनसे मेरी विनती है कि नैतिकता के लबादे से बाहर आकर सोचकर देखें।
जय हिन्द।
आदर्श भाई आपसे ये उम्मीद नहीं थी। आप इस घटना का समर्थन कैसे कर सकते हैं?????
You are right, Its an effective weapon...
एक पत्रकार को अपनी जिम्मेदारियों से मुह नही मोड़ना चाहिए। वो केवल एक इन्सान ही नही है बल्कि उस वक्त एक पत्रकार की हैसियत से वहां गया था। इस तरह का व्यवहार अशोभनीय है.
कांग्रेसी नेताओ ने देश को बर्बाद कर दिया है।
VOTE FOR BJP...
Sir, aapne jo likha hai mai usue agree hu lekin kya ek journalist koa aisa karna chahiye??
पत्रकार धर्म, जाति आदि बंधनों से ऊपर होता है, उसे ऐसा नहीं करना चाहिए...
जो मंत्री बनकर जाते हैं उनकी खोपड़ी पर भी जिम्मेदारी होती है, जब वो बेईमानी करके सीबीआई का दुरुपयोग करते हैं तो काम जूतों का ही है,
सही पड़ी, खूब पड़ी, अच्छी पड़ी, हर बेईमान पर पड़ती रहे
लोकतंत्र पर जब जब जूता चलता है तब तब ऐसे ही लेख पढ़ने को मिलते हैं,और शायद आप इस जूते को ही हल्के में ले गए...
जिन लोगों का जूतों पर अधिक विश्वास है उन्हें पत्रकारिता तो छोड़ ही देनी चाहिये।
बिल्कुल सही विचार व्यक्त किए हैं। सही मायने में जूता ही भ्रष्ट नेताओ के खिलाफ एक मात्र हथियार बच गया है। वर्षों से न्याय की आस का चकानाचूर हो जाना वाकई में शर्मसार कर देने वाली घटना है। ऐसे मे जनरैल सिंह जी ने जो यह कदम उठाया है वह बल्कुल ही सही है। आज हर किसी को भ्रष्ट लोगों के लिए इस हथियार का प्रयोग करना चाहिए। जहां तक बात चिदंबरम जी की है तो यह जूता उनके लिए नहीं वरन सरकार के खिलाफ है और जूता फेकना जनरैल सिंह जी का आक्रोश नही बल्कि पूरे मुल्क का आक्रोश है। अगर एक-आध चाटूकारों की छोड़ दें।
मित्र अक्षत विचार, आपकी टिप्पणी का सम्मान करता हूं लेकिन साथ ही में ये भी कहना चाहता हूं कि बाहुबलियों और भ्रष्ट नेताओं, जिनके खिलाफ न तो संविधान, न कोर्ट, न चुनाव आयोग औऱ न ही पत्रकार की कलम कुछ असर करती है, उन पर जूता एक कारगर हथियार है। मैं चिदंबरम साहब की बात नहीं कर रहा। लोकतंत्र में कई खामिया हैं। नेता उनको अपने हितों के लिए नहीं सुधार रहे। ऐसे में हमारे पास इसके अलावा कोई और विकल्प नहीं। हकीकत को स्वीकार कीजिए की पत्रकार भी इसमें अपनी कलम से कुछ नहीं कर सकते
इस प्रकरण को पत्रकारितो से जोड़कर देखना उचित नहीं।
तुम जैसे लोगों को पत्रकारिता छोड़ देनी चाहिए
तुम जैसे लोगों को पत्रकारिता छोड़ देनी चाहिए
शठे शाठ्यम समाचरेत
अगर बेईमान राजनेता अपने छुद्र स्वार्थों के लिये सीबीआई जैसे संस्था का दुरुपयोग करेंगे तो आम आदमी के पास क्या विकल्प रह जाता है?
जूता मारो तान के
हर इक बेईमान के
जो लोग यहाँ पत्रकारिता पर नैतिकता बघार रहे हैं… वे प्रगतिशील होने का ढोंग कर रहे हैं… ऐसे लोग शायद आजकल के पत्रकारों(?) को नहीं जानते… पहली बार किसी पत्रकार ने अपने दिल की आवाज़ सुनी है… लेकिन इस घटना के बाद हर पत्रकार वार्ता में सभी के जूते बाहर ही उतरवा लिये जायेंगे… सबसे डरपोक प्राणी नेता ही होता है…
जब पूरी व्यवस्था नपुंसक बनी बैठी है तो अब पत्रकारों को ही आगे आना होगा
जरनैल सिंह ने आम भारतीय के आक्रोश को अभिव्यक्ति दी है । व्यवस्था को हाथों की कठपुतली बनाने वाले नेताओं पर को सचेत हो जाना चाहिए कि कानून को अपने हिसाब से परिभाषित करने का सिलसिला अब और लम्बा चलने वाला नहीं है । ये आग़ाज़ है जन भावनाओं के उबलने का ।
बिल्कुल सही कहा आदर्श आपने...मैं आपके विचारों से बिल्कुल सहमत हूं....साथ ही जनरैल सिंह ने जो कदम उठाया मैं उससे भी सहमत हूं....आज नहीं तो कल ये तो होना ही था...दरअसल जो कदम जनरैल सिंह ने उठाया वो उनकी निजी सोच नहीं थी, बल्कि वो पूरे अवाम की सोच थी....
जब जब चले हैं जूते अपनों की ओर से
टीवी मीडिया ने भुनाया इसे जोर शोर से
शादी में इन्हें चुपके से चुराती हैं सालियां
पर अब तो ये बरस रहे हैं जोर-जोर से
मंदिरों से चोरी हो तो अब किसे है फिक्र
फिक्र कुछ नया है जो इस कदर का है
कि पीसीओं में जाना पड़ेगे जूते खोल-खोल के
Suresh Chiplunkar से शत प्रतिशत सहमत
bhaiya aa p ne kafi achha likha hai , jarnall ne pratikatamk virodh kiya hai chahte to wo itne karib the ki wo chitambrum ko joota mar bhi sakte the .sawal ye uthata hai ki kalam ka sipahi yesa karne per majboor ho raha hai kyon .virodh to karna hoga .patrakarita girvi rakh rahin hai.singh is desh me bache he kitane hain unko sarkar bhi marne ka ijajat nahi dethai.
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sabhi patrkaro ko Jarnail ke favour me aage aana chahiye
how can we stand unite? News channels are making this a big issue....
its getting print vs electronic media...
इन नेताओ को पकड़कर गोली मार देनी चाहिए ये तो जुता ही मारा है
जितने भी लोग इस लेख का विरोध कर रहे हैं उनके पीछे शायद ये कारण हो सकते हैं.
पहला सन 84 के दंगों से उन लोगो का कुछ भी लेना देना नहीं है या वो इस विषय मे कुछ नहीं जानते हैं...
दूसरा उन लोगों ने कभी अपनो के खोने का दर्द महसूस नहीं किया है..
तीसरा वो लोग नेताओं को भगवान समझते हैं....
इसके अलावा और भी कारण हो सकते हैं
इस मामले मे मेरा जो व्यक्तिगत मत है वो ये है विरोध के अपने अपने तरीके होते हैं
इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद भी विरोध का एक नया तरीका जन्मा था ....शुक्र है जरनेल सिंग ने वो तरीका नहीं अपनाया
मगर उन्होने विरोध का जो तरीका अपनाया वो प्रशंसनीय है...ओर ये उनकी दरियादिली है की उन्होने अन्याय के खिलाफ सिर्फ़ अपना जूता फेंका....अगर पूरा सिख समुदाय विरोध पर उतार आया तो बेटा पूरी सरकार अपने जूते सर पर रख कर भागेगी
जय हिंद
जूता मारना किसी समस्या का हल नहीं है जूता मारकर उसे क्या मिला
जूता मारकर उसे नाम मिला नेताओं को बदनामी मिली ओर लोगों को अन्याय का विरोध करने का एक नया तरीका मिला.....और आपको लिखने के लिए मुद्दा मिला....अरे भैया एक जूता और इतने सारे काम
मैं तो कहता हून की इन भ्रष्ट नेताओं को और जूते मारो.....लोगों को बहुत सारा काम मिल जाएगा
जरनैल सिंह ने जो किया वो पत्रकारिता के लिहाज से निश्चित रूप से सही नहीं था,लेकिन एक सवाल है कि क्या पत्रकार एक आम आदमी नहीं है,क्या एक पत्रकार के अंदर संवेदना नहीं होना चाहिए .क्या पत्रकार के घर परिवार रिश्तेदार नहीं होते, सन 1984 के दंगें को याद करके आज भी शरीर में सिहरन दौड़ जाती है,जो अमानवीय कृत्य आज भी भारत के इतिहास का काला अध्याय बना हुआ है. उसी को कराने वाले आरोपी को सबूतों के आभाव में छोड़ देना निश्चित रूप से हृदय पर कुठाराघात ही तो है. बड़ी खिन्नता होती है ये कहते हुए कि यहां जनतंत्र है लेकिन वास्तविकता में यहां जन तो हैं लेकिन तंत्र टूटा फूटा कहीं अपनी मलहम पट्टी करा रहा है,इतना कुछ जानने के बाद भी हम अपने आप को लाचार पाते हैं क्यों कि हमारे पथ प्रदर्शक वो लोग हैं जिन्होने अपने दामन में दागों के बाज़ार लगा रखे हैं,और हमारी मजबूरी बन गई है अपने मताधिकार को आंखों पर काली पट्टी बांधकर बेसहारा छोड़ देने की.....सिर्फ मजबूरी...
तरीका गलत है पर उनकी बात सही है..खुद उन्होंने इसे माना है
उनके आक्रोश को समझा जा सकता है .. पर इससे देश एक अनावश्यक बहस में उलझेगा ,कटुता बढेगी ओर रिश्तो में खटास आयेगी....जो कि इस वक़्त के नाजुक दौर में ठीक नहीं है.....उन्हें अपनी कलम से जोरदार तरीके से विरोध को जारी रखना चाहिए ...माना की उससे शायद देश में बहस नहीं छिडती ..पर इससे एक गलत मेसेज भी चला जाता है...
रही इस समस्या के हल की बात ...तो कांग्रेस को कुछ कठोर निर्णय लेने चाहिए...
mujhe to dono hee maamlon mein ek hee afsos raha ki dono hee patrakaaron kaa nishaanaa kachha thaa khair kabhee na kabhee to koi pakaa nishaanebaaj jaroor hee aayegaa.
घटना से साबित हो रहा है की सोच अब
कितनी गिर चुकी है
घटना हर हाल में गलत है
भैया क्या अब जूते से ही अव्वाज़ निकलेगी
आज तो शोक मनाने का दिन है
आखिरकार जूता खाकर चिदम्बरम भी बुश की लाईन में आ गये, दुनिया के सभी नेता एक जैसे होते हैं, जैसे कि पत्रकार कुछ एक अलग होते हैं जो क्रांतिकारी सोच रखते हैं। ये तो केवल विरोध का तरीका मात्र था जो कि जनता के लिये एक पैगाम है।
जो भी हो, कई बार आदमी अपने प्रोफेशन और इमोशन के अंर्तद्वंद में ऐसे कदम उठा लेता है। विरोध करने के तरीके पर तो सदियों से मतभेद बना रहा है और बना रहेगा।
isliyen aapki is post ko ratlam, Jhabua(M.P.), dahood(Gujarat) se Prakashit Danik Prasaran me prakashit karane ja rahan hoon.
kripaya, aap apan postal addres send karen, taki aapko ek prati pahoonchayi ja saken.
pan_vya@yahoo.co.in
जूता फैंकना या ना फैंकना मुद्दा नहीं है लेकिन एक पत्रकार द्बारा ऐसी हरकत को समर्थन सर्वथा अनुचित है. इससे एक गलत परंपरा के शुरु होने का खतरा है....पत्रकार की हसीयत से गए जरनाल सिंंह ने जो किया उससे पत्रकारिता के नैतिक मूल्यों का हास हुआ है.
अगर जरनैल वहां से वॉक आउट कर जाते तो उनके द्वारा किया गया ये कदम ज्यादा सराहनीय कहलाता...बनिस्पत इस कदम के.......
लेख अच्छा है विचारों में असमानता स्वस्थ बहस के लिए बेहद जरुरी है......मेरा ऐसा मानना है.....शुभकामनाएं....
घटना के बाद तथाकथित मीडिया ख़ासकर न्यूज़ चैनलों को कई घंटे खेलने का मसाला मिला...कुछ वरिष्ट पत्रकारों को इसी बहाने संपादकीय वाचने का मौका भी....ये माना कि जरनैल एक पत्रकार था..पत्रकार है....लेकिन क्या एक पत्रकार ये भूल जाए कि वो एक आम आदमी भी है...समाज का एक हिस्सा भी....अगर हर पत्रकार ये भूल जाए कि वो आम आदमी नहीं तो शायद न तो किसी वो आम आदमी का दर्द बयां कर सकता है....न ही उनकी तकलीफें जान सकता है...महसूस कर सकता है....और जब महसूस नहीं करेगा....तो उसका कलम क्या लिखेगा ख़ाक....तटस्थ रहकर पत्रकार तभी तक लिख सकता है..जब तक उसके गुस्सा चिंगारी के रुप में जल रहा हो....जरनैल की मानसिकता महसूस करने की जरुरत है....मैं उसे वेल डन नहीं कह सकता....लेकिन नेताओं को सचेत हो जाना चाहिए...क्योंकि राजनीति की गंदगी अब नाक तक पहुंच चुकी है....जिस दिन आम आदमी हाथ में जूते लेकर निकल पड़ेगा ...उस दिन स्वार्थी घटिया राजनीतिज्ञों को भागने की जगह तक नहीं मिलेगी.....जरनैल सिंह ने प्रतीकात्मक रुप से जूता उछाला था.....आम आदमी जूते का निशाना लगाएगा.......लगाना भी चाहिए...क्योंकि सरकार...राजनीति...राजनेता ...शायद अब यही भाषा समझें........
आपने सही कहा या गलत ये तो अपने अपने विचार है..पर जरनैल ने सही किया या गलत इस बहस में पड़ना बेवकूफी होगी क्योकि वो एक क्रोध की फुहार भर थी जो सिर्फ छलकी भर हैं...अगर वो घड़ा फूट गया तो एक बार फिर देश जल उठेगा और हम सभी अख़बारों और चैनलों में लोगों के मारे जाने की ख़बरें चलातें रहेंगे और देश जलता रहेगा......
जूते वाली घटना के बाद टाइटलर के टिकट कट जाने से एक बात तो साफ़ हो जाती है कि आजकल के नेता जूतों की ही भाषा समझते हैं.
आदर्श, गुस्से पर आखिर इंसान कब तक काबू रख सकता है... जनरैल प्रकरण पर मेरी टिप्पणी देखना चाहते हो तो मेरा ब्लॉग देखो।
आदर्श बाबू, पहली बार बरास्ता अनुपम मिश्रा के ब्लॉग से आपके अड्डे तक पहुंचा हूं। आजकल सभी ब्लॉगियों के सिर पर जरनैल जूता समेत सवार है। टिपपणियों में बहस जारी है, लेकिन इससे पहले भी भारत में एक लेखिका अरुंधती राय को एक प्रतिष्ठित मंच पर जूता पड़ा चुका है। तब ऐसी आग बबूला बहस नहीं हुई थी। हालांकि चिदंबरम इस जूते के हकदार नहीं थे। जो हुआ सो हुआ। ये जरनैल का स्वविवेक था और उसने अपना फैसला ले लिया तो खामियाजा भी भुगत रहा है। मैं तो इतना ही कहना चाहूंगा कि अगर जूता संवाद का उचित माध्यम है तो जेब पर कलम की जगह जूता टांग कर चलना चाहिए। अपना फैसला आप खुद लें। मैं तो जूते को चलने-फिरने का ही माध्यम मानता हूं। आपके लेखन के बारे में क्या कहूं पर साज सज्जा बखूबी की है आपने अपने ब्लॉग की।
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When I gave that free censure of the country and its inhabitants, he made no further answer than by telling me that I had not been long enough among them to form a judgment, and that the different nations of the world had different customs, with other common topics to the same purpose. But when we returned to his palace, he asked me how I liked the building, what absurdities I observed, and what quarrel I had with the dress or looks of his domestics. This he might safely do, because every thing about him was magnificent, regular, and polite. I answered that his Excellency's prudence, quality, and fortune, had exempted him from those defects which folly and beggary had produced in others. He said if I would go with him to his country house, about twenty miles distant, where his estate lay, there would be more leisure for this kind of conversation. I told his Excellency that I was entirely at his disposal, and accordingly we set out next morning.
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