महिला दिवस के समारोह में
शिरकत करके लौट रही है पारो,
सुन कर भाषण और श्रवणप्रिय आंकड़े
संजो रही है स्वप्न हज़ारों।
हुआ है आत्मशक्ति का बोध
नव ऊर्जा का संचार,
टूटे हैं कई विभ्रम
बदल सा गया है संसार।
कुछ कदम चलते ही लेकिन
तीक्ष्ण शब्दों की बौछार हुई,
सरेबाज़ार फिर से पारो
बदतमीज़ी का शिकार हुई।
सूरज छिप रहा क्षितिज पर
अब कदमों की रफ्तार बढ़ी,
निर्जन राह से है होकर घर जाना
सोच कर उसकी सांस चढ़ी।
बढ़ चली लेकिन वो पथ पर
नारी शक्ति का उसे ध्यान हुआ,
गूंजे कानों में दीदी के शब्द तो
नारी होने पर अभिमान हुआ।
घुप्प अंधेरे में लेकिन
अजब सा कुछ अहसास हुआ,
उखड़ गए ज़मीं से कदम
जकड़न से अवरुद्ध श्वास हुआ।
अल सुबह अर्धनिर्वस्त्र वह
स्तब्ध, दग्ध पहुंची अपने घर
शुरु हुआ मौन रुदन
विलाप हुआ बिना किसी स्वर।
मूर्ति सम बैठी थी पारो
भावशून्य एक दम निर्बोध,
किसी तरह की प्रतिक्रिया नहीं
न दुख, और न ही क्रोध।
घरवालों के ताने सुनकर
बही इक तीव्र अश्रुधार,
समझ नहीं आया उसको
जन्मदाताओं का ये व्यवहार।
अगली सुबह मोहल्ले में
सबके घर में खबर गई,
शर्मा जी की बेटी पारो,
एकाएक गुज़र गई....
एक साल हुआ घटना को
भूल गया हर कोई यह बात,
नहीं भूली पारो की बहन मगर वो
महिला दिवस की काली रात।
एक दिन महिला दिवस मनाने से कोई लाभ नहीं होने वाला। समाज में महिलाओं की सुरक्षा बढ़ाने और उन्हें सम्मान दिलाने के लिए 365 दिन प्रयास करने होंगे। इस तरह एक दिन मनाना कोई हल नहीं। हम आस-पड़ोस क्या अपने घरों में ही औरतों को कितना सम्मान देते हैं पहले ये देखना होगा। सबसे पहले पुरुषों को चाहिए कि वो महिलाओं की सोच को समझें। शुरुआत अपने घर से करें। जिस तरह की स्वतंत्रता आप अपने लिए चाहते हैं वैसी ही आज़ादी अपने परिवार की महिला सदस्यों को दे। आज के दौर में महिला दिवस मनाना एक ट्रेंड हो गया। इस दिन कई लोग बरसाती मेंढकों की तरह टरटराने के लिए शीतनिद्रा से निकल आते है् और साल भर गायब रहते हैं। ऐसे लोगों पर लगाम लाई जाना बहुत आवश्यक है। सबसे ज्यादा हानिकारक हैं एनजीओ।
चलिए इस महिला दिवस पर ये प्रण लें कि हम अपने परिवेश में हर महिला को उतनी स्वतंत्रता और स्थान देंगे जितना हम अपने लिए चाहते हैं।
समस्त बालिकाओं, युवतियों, महिलाओं और वृद्धाओं को हार्दिक शुभकामनाएं...
शिरकत करके लौट रही है पारो,
सुन कर भाषण और श्रवणप्रिय आंकड़े
संजो रही है स्वप्न हज़ारों।
हुआ है आत्मशक्ति का बोध
नव ऊर्जा का संचार,
टूटे हैं कई विभ्रम
बदल सा गया है संसार।
कुछ कदम चलते ही लेकिन
तीक्ष्ण शब्दों की बौछार हुई,
सरेबाज़ार फिर से पारो
बदतमीज़ी का शिकार हुई।
सूरज छिप रहा क्षितिज पर
अब कदमों की रफ्तार बढ़ी,
निर्जन राह से है होकर घर जाना
सोच कर उसकी सांस चढ़ी।
बढ़ चली लेकिन वो पथ पर
नारी शक्ति का उसे ध्यान हुआ,
गूंजे कानों में दीदी के शब्द तो
नारी होने पर अभिमान हुआ।
घुप्प अंधेरे में लेकिन
अजब सा कुछ अहसास हुआ,
उखड़ गए ज़मीं से कदम
जकड़न से अवरुद्ध श्वास हुआ।
अल सुबह अर्धनिर्वस्त्र वह
स्तब्ध, दग्ध पहुंची अपने घर
शुरु हुआ मौन रुदन
विलाप हुआ बिना किसी स्वर।
मूर्ति सम बैठी थी पारो
भावशून्य एक दम निर्बोध,
किसी तरह की प्रतिक्रिया नहीं
न दुख, और न ही क्रोध।
घरवालों के ताने सुनकर
बही इक तीव्र अश्रुधार,
समझ नहीं आया उसको
जन्मदाताओं का ये व्यवहार।
अगली सुबह मोहल्ले में
सबके घर में खबर गई,
शर्मा जी की बेटी पारो,
एकाएक गुज़र गई....
एक साल हुआ घटना को
भूल गया हर कोई यह बात,
नहीं भूली पारो की बहन मगर वो
महिला दिवस की काली रात।
एक दिन महिला दिवस मनाने से कोई लाभ नहीं होने वाला। समाज में महिलाओं की सुरक्षा बढ़ाने और उन्हें सम्मान दिलाने के लिए 365 दिन प्रयास करने होंगे। इस तरह एक दिन मनाना कोई हल नहीं। हम आस-पड़ोस क्या अपने घरों में ही औरतों को कितना सम्मान देते हैं पहले ये देखना होगा। सबसे पहले पुरुषों को चाहिए कि वो महिलाओं की सोच को समझें। शुरुआत अपने घर से करें। जिस तरह की स्वतंत्रता आप अपने लिए चाहते हैं वैसी ही आज़ादी अपने परिवार की महिला सदस्यों को दे। आज के दौर में महिला दिवस मनाना एक ट्रेंड हो गया। इस दिन कई लोग बरसाती मेंढकों की तरह टरटराने के लिए शीतनिद्रा से निकल आते है् और साल भर गायब रहते हैं। ऐसे लोगों पर लगाम लाई जाना बहुत आवश्यक है। सबसे ज्यादा हानिकारक हैं एनजीओ।
चलिए इस महिला दिवस पर ये प्रण लें कि हम अपने परिवेश में हर महिला को उतनी स्वतंत्रता और स्थान देंगे जितना हम अपने लिए चाहते हैं।
समस्त बालिकाओं, युवतियों, महिलाओं और वृद्धाओं को हार्दिक शुभकामनाएं...
अरे भईया ना तो हमी मनाते है, ओर नाही हमारी बीबी ही मनाती है, जिन के पास गुलाबी चड्डियां है, वो मनाती है, अब उन से पंगा लेने की मेरी तो हिम्मत नही... कि जा कर कहूं बहन जी इसे मत मनाओ क्यो कि... लेकिन उस से पहले ही मुझे दो जुते मारे गी बहन कहने के कारण, ओर फ़िर गुलाबी चड्डी मेरे मुंह पर मारे गी....
ना बाबा ना
आपको और आपके परिवार को होली की रंग-बिरंगी भीगी भीगी बधाई।
बुरा न मानो होली है। होली है जी होली है
प्रभु रचना पड़कर तो मन तृप्त हो गया ........मानो वर्षो की प्यास बुझ गयी हो.....
क्या कहूँ ........इस लेख की प्रशंसा को शब्दों की परिधि मे बाँधने मे अक्षम हूँ.......
मित्र भावी रचनाओं के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ ......
बहुत सुंदर आलेख लिखा है ...
भाटिया जी,
गुलाबी चड्डियों वाली बात दिल को छू गई। सही कहा आपने विरोध करने के लिए उन लोगों ने तरीका अपनाया भी तो क्या?
good post adarsh. keep writing...
मित्र पोस्ट पढ़कर कोई कमेंट करता कि सहसा दृष्टी राज भाटिया जी के कमेंट पर चली गई ...जिन के पास गुलाबी चड्डियां है, वो मनाती है, अब उन से पंगा लेने की मेरी तो हिम्मत नही...
बहुत खूब....
आजकल कमेंट्स पोस्टों से टक्कर की होने लगी हैं.
इस बेहतरीन कविता को राजभाटिया जी वाली कमेंट मिली.
जय हो.
मित्र रचना पढ़कर मन गदगद हो गया,लेकिन महिला तो आजकल खुद पुरुष को अपना शिकार बनाने लगी है नहीं विश्वास हो तो कभी दिल्ली की सड़कों पर चलने वाली बस में जाकर देखिए किस प्रकार अंतिम पड़ाव पर चढ़ने वाली लड़की बस के शुरुआती पड़ाव से सफर कर रहे पुरुष को सीट खाली करने के लिए विवश कर देती है।
मर्मस्पर्शी रचना!
बहुत सही लिखा है। भावुक कर दिया। ये तो सही है कि महिला दिवस के कारनामें एकदिवसीय मैच होते है। इन्हे टेस्ट मैच की एक ऐसी सिरीज की तरह होनी चाहिये जो खत्म न हो
बहुत सही लिखा है। भावुक कर दिया। ये तो सही है कि महिला दिवस के कारनामें एकदिवसीय मैच होते है। इन्हे टेस्ट मैच की एक ऐसी सिरीज की तरह होनी चाहिये जो खत्म न हो
बहुत मार्मिक विषय चुना है आपने कविता के लिये लेकिन तुकबन्दी के कारण उसकी तीव्रता कम हो रही है ।
मर्मस्पर्शी.... :(
मर्मस्पर्शी......