जिन हाथों ने
तुम्हें जन्म से संभाला
गोद में उठाकर
तुम्हें घंटों खेलाया,
जग-जगकर रातों को
तुम्हें खाना खिलाया
उंगली पकड़ाकर
तुम्हें चलना सिखाया
लड़खड़ा कर गिरने पर
तुम्हें झट से उठाया,
आंसुओं को पोंछा
चोटों को सहलाया,
लगाकर चपत
सही गलत का फर्क बताया
थमाकर कलम
तुम्हें लिखना सिखाया
खड़े हो जहां तुम आज गर्व से
उस जगह के काबिल बनाया,
आज उन्हीं हाथों को
तुम्हारे हाथों का स्पर्श भर चाहिए,
पर हो सात समंदर पार बैठे उस वक्त
जब मां-बाप के पास होना चाहिए...
तुम्हें जन्म से संभाला
गोद में उठाकर
तुम्हें घंटों खेलाया,
जग-जगकर रातों को
तुम्हें खाना खिलाया
उंगली पकड़ाकर
तुम्हें चलना सिखाया
लड़खड़ा कर गिरने पर
तुम्हें झट से उठाया,
आंसुओं को पोंछा
चोटों को सहलाया,
लगाकर चपत
सही गलत का फर्क बताया
थमाकर कलम
तुम्हें लिखना सिखाया
खड़े हो जहां तुम आज गर्व से
उस जगह के काबिल बनाया,
आज उन्हीं हाथों को
तुम्हारे हाथों का स्पर्श भर चाहिए,
पर हो सात समंदर पार बैठे उस वक्त
जब मां-बाप के पास होना चाहिए...
मैं इस रचना को समझा नहीं
आजकल के माँ बाप कि यही नियति बन गयी है. आभार.
बहुत ही भावुक कर दिय आप की कवित ने, लगता है खास कर मेरे जेसो के लिये लिखी है यह कविता.
धन्यवाद
भावुक कर दिया मित्र.......