स्कूल, एक ऐसी जगह जहां एक बच्चा अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण वक्त गुज़ारता है। देखा जाए तो स्कूल जाने वाला छात्र अपने घर से ज्यादा स्कूल में ही रहता है। दिन के चौबीस घंटों में से स्कूल में गुज़ारे गए 6-7 घंटे उस समय से कहीं ज्यादा है जो एक छात्र अपने माता-पिता या अन्य परिजनों से साथ गुज़ारता है। ऐसे में स्कूल से प्रेम होना लाजिमी है। आज स्कूल जाते बच्चों को देखकर मेरा मन बहुत खुश होता है। मन करता है कि काश मैं फिर से स्कूल जाने लगता। लेकिन यही विडंबना है, जब स्कूल जाने के दिन थे तब स्कूल जाना एक सज़ा की तरह लगता है। सोचता था कि कब इस पढ़ने-लिखने से पिंड छूटेगा? लेकिन आज जब प्रोफेशनल लाइफ की शुरुआत हुई है तो अजीब से भाव में रहता हूं। एक छात्र की ज़िंदगी और एक नौकरीशुदा शख्स की जिंदगी में कितना फर्क होता है अब समझ में आ रहा है। तीन महीने हुए हैं मेरी पहली जॉब शुरु हुए। जिंदगी ने अलग ही रुख अपना लिया है। एक रुटीन या यूं कहें एक बाध्यता सी आ गई है। सभी के साथ पहले-पहल यही होता होगा शायद। अभी अनुकूलन में समय लगेगा...। अब अपना बचपन और स्कूल बहुत याद आता है। सोच रहा हूं अपने अनुभव को शब्दों में पिरो दूं। उन यादों को आपके साथ बांटूं जो बार-बार मुझे भावुक कर देती हैं। शुरुआत में स्कूल जाने से। जब मैं तीन साल का था तो मेरा दाखिला सरस्वती विद्या मंदिर में नर्सरी क्लास में कराया गया। ये स्कूल शिव मंदिर में चलता था। जब पापा मुझे पहली बार स्कूल ले गए तो मुझे समझ नहीं आया कि मैं नए कपड़े पहनकर और ये झोला उठाकर इस मंदिर में क्यों आया हूं। इस मंदिर में मैं पहले भी कई बार आता रहा था। यहां मेला भी लगा करता था और इसी मंदिर में आकर मुंडन संस्कार के उपरांत बाल चढ़ाए जाते हैं। मेरा मुंडन भी इसी मंदिर में हुआ था। धर्मशाला के कमरे हमारे क्लासरूम हुआ करते थे। अधिकतर मंदिर की चारदीवारी के भीतर बने प्रांगण में क्लास लगती थी। इसी स्कूल में मेरे मामा के बच्चे जो मेरे बड़े भाई-बहन हैं, भी पढ़ा करते थे। इसलिए उन्हें देखकर मैं खुश रहता था। वो एक बार आकर हाल-चाल पूछ लिया करते थे। मेरे पापा जोगिन्दर नगर, जो कि प्रमुख कस्बा है, के सरकारी स्कूल में भौतिकी के लेक्चरर थे। अपने स्कूल जाते हुए मुझे छोड़ जाया करते थे। मेरा स्कूल उनके रास्ते में ही पड़ता था। मैं बजाज चेतक स्कूटर में आगे खड़ा होकर स्कूल आता था (मेरे स्कूटर और मेरी उम्र एक ही है, मेरा जन्म 1988 में हुआ और स्कूटर भी उसी साल लिया गया था, आज 20 सा बाद भी वो सही सलामत है और वर्किंग कंडीशन में है)। हम लोग सेरू नाम की जगह में रहा करते थे। मम्मी प्राथमिक उप स्वास्थ्य केंद्र में नर्स थीं और उन्हें क्वार्टर मिला हुआ था। हम उसी में रहा करते थे। ये जगह मेरे नाना जी के घर से 1 किलोमीटर दूर है और मेरे गांव वाले घर से 10 किलोमीटर दूर। खैर फिर से स्कूल की बात पर आता हूं, मैं देखा करता था कि मेरे साथ वाले बच्चे रोते हुए स्कूल आते हैं। मैं हैरान होता था कि ऐसा क्यों कर रहे हैं। कितना अच्छा अहसास हो रहा है उन दिनों को याद करते हुए... लग रहा है मैं क्लास से उठकर भाग गया हूं और शिव मंदिर के बाहर खड़ी नंदी बैल की मूर्ति के गले में बंधी घंटी को बजा रहा हूं। हां, मैं बहुत शरारती हुआ करता था। मुझे याद है मैं स्कूल के पहले दिन क्लास में से उठकर उस बैल गले में बंधी घंटी बजाने लगा था।
कितना अच्छा माहौल था। रिसेस में सभी बच्चे (क्लास नर्सरी से लेकर आठ तक) बरामदे में दोनों तरफ बैठते थे और टिफिन को सामने रखकर खाना खाने से पहले भोजनमंत्र पढ़ा करते थे। इस दौरान कई बार हमारे अध्यापक हमारे टिफिन छुपा देते थे। मेरा टिफिन कई बार छिपाया गया। जब मुझे अपना टिफिन नहीं मिलता था तो मैं रोने लगता था जिससे मेरा टिफिन तुरंत दे दिया जाता। मेरी बुआ के लड़के भी इस स्कूल में अध्यापक थे। वही ऐसा किया करते थे। और एक बात, बच्चे कितने ईमानदार होते हैं, जब भोजन मंत्र पढ़ा जाता था तो सभी ईमानदारी से आंखें बंद किया करते थे, नहीं तो गुरुजनों की चालाकी पकड़ी जाती। इस स्कूल के बाहर एक बहुत बड़ा पीपल का पेड़ है।
हम वहां भी खेलने जाया करते थे। मैं उस पेड़ में चढ़ने की बहुत कोशिश करता था लेकिन कभी कामयाब नहीं होता था। एक लड़का था जो उस पर चढ़ जाया करता और ऊपर से अजीब-अजीब चीज़ें फैंका करता। ये चीज़ें लोहा या दूसरा सामान होतीं (अब समझ में आया है) जो लोग ग्रह टालने के लिए पीपल पर चढ़ा जाते थे। आज वो पीपल का पेड़ सूख गया है। शायद वजह यही रही होगी कि स्कूल वहां से शिफ्ट हो गया है। मानव और वृक्षों के बीच में गहरा रिश्ता होता है। उस मंदिर के नीचे मां गायत्री की प्रतिमा बना दी गई है। इस वजह से अब बच्चे उस अटियाले पर जाकर खेल नहीं सकते। मुझे तो यही वजह लगती है इस पेड़ के सूखने की।
इस स्कूल में हमें बहुत कुछ सीखने को मिला। इस स्कूल में हमें पेंटिंग भी कराई जाती। जैसा कि मेरी माता जी कहती हैं और मुझे खुद भी याद है मैं अच्छी ड्राइंग बनाता था। सब उस स्कूल, उसके टीचर्स और मेरे माता-पिता की मेहरबानी थी। उसी स्कूल में रंगों का ज्ञान कराया गया। और हां, अलग-अलग चीज़ें चखाकर स्वाद का बोध भी कराया गया। खेल भी रोचक और शिक्षाप्रद होते थे। कविताएं याद कराई गईं। मैं लगभग डेढ़ साल तक इस स्कूल में पढ़ा। इसके बाद मम्मी का तबादला मेरे गांव में हो गया। गांव से स्कूल दूर था। गांव तक सड़क भी नहीं थी। पापा को 4 किलोमीटर पैदल चलकर स्कूटर तक जाना पड़ता था जो किसी जानकार के यहां खड़ा किया होता। मैं छोटा था इसलिए इतना चल नहीं सकता था। इसलिए मेरा दाखिला मेरे गांव के ही सरकारी प्राइमरी स्कूल में करा दिया गया। पुराना स्कूल छोड़ने में अच्छा तो नहीं लगा। इस गांव वाले स्कूल में भी अलग अनुभव रहा। आज मेरा पहला स्कूल उस मंदिर से नई बिल्डिंग में शिफ्ट हो गया है। उस मंदिर का भी कायाकल्प हो गया है। वहां बची है तो दो चीज़ें जो स्कूल की याद कराती हैं, एक वो पीपल का पेड़, और एक नन्दी बैल । शिवलिंग और पुजारी भी वहीं हैं लेकिन पीपल और नन्दी बैल ही हैं जो स्कूली दिनों को याद कराते हैं। पीपल के पेड़ के इर्द-गिर्द बने अटियाले में खेलना और नन्दी बैल के गले की घंटी बजाना आज भी याद आता है। इसके बाद शुरु होती है गांव के स्कूल की कहानी। गांव तो गांव होता है, एकदम मस्त। सबसे प्यारा, गांव वाले घर से थोड़ी ही दूर था स्कूल। इस पोस्ट में इतना ही, नींद आ रही है। गांव वाले स्कूल के बारे में अगली बार। पढ़ना मत भूलना।
कितना अच्छा माहौल था। रिसेस में सभी बच्चे (क्लास नर्सरी से लेकर आठ तक) बरामदे में दोनों तरफ बैठते थे और टिफिन को सामने रखकर खाना खाने से पहले भोजनमंत्र पढ़ा करते थे। इस दौरान कई बार हमारे अध्यापक हमारे टिफिन छुपा देते थे। मेरा टिफिन कई बार छिपाया गया। जब मुझे अपना टिफिन नहीं मिलता था तो मैं रोने लगता था जिससे मेरा टिफिन तुरंत दे दिया जाता। मेरी बुआ के लड़के भी इस स्कूल में अध्यापक थे। वही ऐसा किया करते थे। और एक बात, बच्चे कितने ईमानदार होते हैं, जब भोजन मंत्र पढ़ा जाता था तो सभी ईमानदारी से आंखें बंद किया करते थे, नहीं तो गुरुजनों की चालाकी पकड़ी जाती। इस स्कूल के बाहर एक बहुत बड़ा पीपल का पेड़ है।
हम वहां भी खेलने जाया करते थे। मैं उस पेड़ में चढ़ने की बहुत कोशिश करता था लेकिन कभी कामयाब नहीं होता था। एक लड़का था जो उस पर चढ़ जाया करता और ऊपर से अजीब-अजीब चीज़ें फैंका करता। ये चीज़ें लोहा या दूसरा सामान होतीं (अब समझ में आया है) जो लोग ग्रह टालने के लिए पीपल पर चढ़ा जाते थे। आज वो पीपल का पेड़ सूख गया है। शायद वजह यही रही होगी कि स्कूल वहां से शिफ्ट हो गया है। मानव और वृक्षों के बीच में गहरा रिश्ता होता है। उस मंदिर के नीचे मां गायत्री की प्रतिमा बना दी गई है। इस वजह से अब बच्चे उस अटियाले पर जाकर खेल नहीं सकते। मुझे तो यही वजह लगती है इस पेड़ के सूखने की।
इस स्कूल में हमें बहुत कुछ सीखने को मिला। इस स्कूल में हमें पेंटिंग भी कराई जाती। जैसा कि मेरी माता जी कहती हैं और मुझे खुद भी याद है मैं अच्छी ड्राइंग बनाता था। सब उस स्कूल, उसके टीचर्स और मेरे माता-पिता की मेहरबानी थी। उसी स्कूल में रंगों का ज्ञान कराया गया। और हां, अलग-अलग चीज़ें चखाकर स्वाद का बोध भी कराया गया। खेल भी रोचक और शिक्षाप्रद होते थे। कविताएं याद कराई गईं। मैं लगभग डेढ़ साल तक इस स्कूल में पढ़ा। इसके बाद मम्मी का तबादला मेरे गांव में हो गया। गांव से स्कूल दूर था। गांव तक सड़क भी नहीं थी। पापा को 4 किलोमीटर पैदल चलकर स्कूटर तक जाना पड़ता था जो किसी जानकार के यहां खड़ा किया होता। मैं छोटा था इसलिए इतना चल नहीं सकता था। इसलिए मेरा दाखिला मेरे गांव के ही सरकारी प्राइमरी स्कूल में करा दिया गया। पुराना स्कूल छोड़ने में अच्छा तो नहीं लगा। इस गांव वाले स्कूल में भी अलग अनुभव रहा। आज मेरा पहला स्कूल उस मंदिर से नई बिल्डिंग में शिफ्ट हो गया है। उस मंदिर का भी कायाकल्प हो गया है। वहां बची है तो दो चीज़ें जो स्कूल की याद कराती हैं, एक वो पीपल का पेड़, और एक नन्दी बैल । शिवलिंग और पुजारी भी वहीं हैं लेकिन पीपल और नन्दी बैल ही हैं जो स्कूली दिनों को याद कराते हैं। पीपल के पेड़ के इर्द-गिर्द बने अटियाले में खेलना और नन्दी बैल के गले की घंटी बजाना आज भी याद आता है। इसके बाद शुरु होती है गांव के स्कूल की कहानी। गांव तो गांव होता है, एकदम मस्त। सबसे प्यारा, गांव वाले घर से थोड़ी ही दूर था स्कूल। इस पोस्ट में इतना ही, नींद आ रही है। गांव वाले स्कूल के बारे में अगली बार। पढ़ना मत भूलना।
you're also getting nostalgic.. that's good..
I'm waiting for the next part.. :)
स्कूली जीवन का भी अलग आनंद है....अच्छा लगा आपके विवरण को पढकर....सही लिखा है।
बचपन के दिनों के बढ़िया यादे हमेशा संगदिल रहती है .
बचपन के दिनों के बढ़िया यादे हमेशा संगदिल रहती है .
सही गोता लगाय.
सबका बचपन खास होता है मित्र....वाकई वक्त के इस पड़ाव में आकर फिर से अपने स्कूल जाने का मन करता है। मैं भी स्कूल को बहुत बड़ा बोझ समझता था। बचपन में सोचता था मैं जानवर या फिर चिड़िया क्यों नहीं बना कम से कम स्कूल तो नही जाना पड़ता....लेकिन दफ्तर की जिंदगी जी कर लगता है हमारा स्कूली दिन किताना अच्छा था....पोस्ट पढ़कर मेरा खुद का स्कूल याद आ गया...ऐसी ही कुछ और पहलुओँ से अवगत कराते रहिए अपने बारे में...शायद हम लिखी हुई चीज के प्रति अधिक गंभीर रहते हैं...
reading your post seems more like reading a story. the more you read,the more you want to read. absolutely splendid...loved it. :) can't wait for its sequel...
गीता दत्त का एक पुराना गाना याद आ गया-
"बचपन के दिन भी क्या दिन थे ,
उड़ते फिरते तित्त्ली बन के.
छोटी सी ख़ुशी,छोटी से गम
हाय! क्या दिन थे. "