संभलकर चलना तो फ़ितरत में था शुमार
वो तस्वीर क्या देखी कि लड़खड़ाए रहे हैं
ज़ुल्फ़ें पसरी हैं उनकी सिरहाने की तरह
वो जगाकर लाखों अरमान ख़ुद ढहे जा रहे हैं
शायर बन बैठी है रुख़सार पर बिखरी हथेली
ख़ुद पर ही वो कई अशआर कहे जा रहे हैं
नाज़ुक उंगलियों में वो नन्हे से नाख़ून
दिल की गहराइयों में कहीं गड़े जा रहे हैं
इक कोने से झलकी है मासूम सी मुस्कान
लबों के छोर से कुछ मोती झरे जा रहे हैं
बंद आंख दिखाती जा रही है कई ख़्वाब
ख़ुद हर अज़ाब को चुपचाप सहे जा रहे हैं
तिल पर ठहरी नज़र तो कौंधी हिदायत- आदर्श
ज़रा थामिए अपनी निगाह, कहां बहे जा रहे हैं

