बस! अब और मत मुस्कुराओ
मत करो दिखावा कि खुश हो तुम,
आ जाने दो उन भावों को बाहर
जो मचल रहे हैं माथे पर
परेशानी की लकीर बनकर।।।।
एक हफ्ते से ज़ुकाम है तुम्हे फिर भी
दवा के पैसे बचा रहे हो,
ताकि अपने बच्चों की इच्छा न दबानी पड़े;
नहीं लिए अब तक गर्म कपड़े
इसलिए कि घर पैसा भेजना है।।।
खुद का मन मारना मुश्किल नहीं
कितना दर्द होता है लेकिन
बच्चों की इच्छाओं को दबाते हुए
पारिवारिक जिम्मेदारियों को न निभा पाने पर
आइने के सामने लजाते हुए।।।
लामबन्द हो अन्याय के विरुद्ध
उठाओ आवाज़ हुक्मरानों के खिलाफ,
करते हैं झूठे वायदे
और करवाते हैं इंतज़ार
तुम्हारी दिन-रात की मेहनत के बदले।।।
गरियाना छोडो, दो टूक शब्दों में बात करो
या करो पलायन तुम भी,
उनकी तरह जो अडिग नहीं रह पाए,
अगर संतुष्ट नहीं थे हालात से
तब भी अपनी बात नहीं रख पाए।।।
मत करो दिखावा कि खुश हो तुम,
आ जाने दो उन भावों को बाहर
जो मचल रहे हैं माथे पर
परेशानी की लकीर बनकर।।।।
एक हफ्ते से ज़ुकाम है तुम्हे फिर भी
दवा के पैसे बचा रहे हो,
ताकि अपने बच्चों की इच्छा न दबानी पड़े;
नहीं लिए अब तक गर्म कपड़े
इसलिए कि घर पैसा भेजना है।।।
खुद का मन मारना मुश्किल नहीं
कितना दर्द होता है लेकिन
बच्चों की इच्छाओं को दबाते हुए
पारिवारिक जिम्मेदारियों को न निभा पाने पर
आइने के सामने लजाते हुए।।।
लामबन्द हो अन्याय के विरुद्ध
उठाओ आवाज़ हुक्मरानों के खिलाफ,
करते हैं झूठे वायदे
और करवाते हैं इंतज़ार
तुम्हारी दिन-रात की मेहनत के बदले।।।
गरियाना छोडो, दो टूक शब्दों में बात करो
या करो पलायन तुम भी,
उनकी तरह जो अडिग नहीं रह पाए,
अगर संतुष्ट नहीं थे हालात से
तब भी अपनी बात नहीं रख पाए।।।
बहुत सुंदर लिखा है.....बधाई।
अच्छा होता लोग रोज-रोज मरने के बजाय एक बार में ही मर जाते।।।। जहां तक हुक्मरानों का सवाल है, मालिकों का सवाल है तो मित्र वो तो इसी तंगपरस्ती का लाभ उठातें हैं।
आद्र्श जी,बहुत ही उम्दा रचना है।बहुत बढिया कहा है आपने-
गरियाना छोडो, दो टूक शब्दों में बात करो
या करो पलायन तुम भी,
उनकी तरह जो अडिग नहीं रह पाए,
अगर संतुष्ट नहीं थे हालात से
तब भी अपनी बात नहीं रख पाए।।।
बहुत ही सुंदर भाव, सुंदर कविता.
धन्यवाद
बहुत ही बढ़िया लिखा है। एक-एक लाइन आम आदमी से जुड़ी है। आज के दौर की यही हक़ीक़त है।
आदर्श
कविता थोड़े-थोड़े में कई जगह विचरण कर रही है... खयाल आते जा रहे हैं बेतरतीब... और उसी तरह तुमने उन्हें उकेर भी दिया है... ऐसा होता है कई बार जब कई चीजें दिमाग में एक साथ चलती हैं तो हम ऐसे ही रिएक्ट करते हैं...
एक पल बच्चे की खुशियों का खयाल... दूसरे पल नौकरी की बेबसी... तीसरे पल विरोध करने का विचार... और कभी सारा दोष नियति के मत्थे मढ़ देते हैं...
सच तो ये है कि हमने जो किया है उसका ही असर हमारी जिंदगी पर पड़ता है... हम ही तो हैं, जो बदलाव की बात तो करते हैं लेकिन खुद कभी रिएक्ट नहीं कर पाते... जैसी हमारी मजबूरियां हैं वैसी ही दूसरों की भी...
बहरहाल विचार के स्तर पर ये द्वंद्व चलता रहे, ये अच्छा है... एक बार मैंने आपको पहले भी लिखा था कि गोष्ठियों में जाना चाहिए... क्योंकि पता नहीं कब कौन सा विचार अपना असर दिखा दे..
ऐसे ही ये कविताओं की दुनिया भी है... हमारे अंदर कौंधते ये विचार ही कई बार हमें कुछ कर गुजरने को प्रेरित कर देते हैं...
भावनाओं की लाजवाब अभिव्यक्ति...
इसके अलावा एक और बात कहना चाहूंगी आपसे.. आपने अपने ब्लॉग पर बेहतरीन काम किया है आपने.. ख़ासतौर पर ब्लॉग का शीर्षक "प्याला... जो ज़िदंगी के रंगो से भरा है"
ब्लॉग का शीर्षक और उसमें लगी तस्वीर काफी पंसद आई। गहरा प्रभाव छोड़ती है।
Very Nice.
Very good!
voi ka kamal