अगर तुम युवा हो
स्मृतियों से कहो
पत्थर के ताबूत से बाहर आने को.
गिर जाने दो
पीले पड़ चुके पत्तों को,
उन्हें गिरना ही है.
बिसुरो मत
ना ही ढिंढोरा पीटो
यदि दिल तुम्हारा सचमुच
प्यार से लबरेज़ है
तब कहो कि विद्रोह न्यायसंगत है।
अन्याय के विरुद्ध
युद्ध को आमंत्रित करो
मुर्दा शांति और कायर निठल्ले विमर्शों के विरुद्ध
चट्टान के नीचे दबी पीली घास
या जज़्ब कर लिए गये आँसू के क़तरे की तरह
पिता के सपनों
और माँ की प्रतीक्षा को
और हाँ, कुछ टूटे-दरके रिश्तों और यादों को भी,
रखना है साथ
जलते हुए समय की छाती पर यात्रा करते हुए
और तुम्हें इस सदी की
ज़ालिम नहीं होने देना है.
रक्त के सागर फिर पहुँचना है तुम्हे
और उससे छीन लेना है वापस
मानवता का दीप्तमान वैभव ,
सच के आदिम पंखों की उड़ान,
न्याया की गरिमा
भविष्य की गरिमा
और भविष्य की कविता
अगर तुम युवा हो.
नोट: ये मेरी रचना नहीं है। मैंने किसी पुस्तिका में इसे पढ़ा था। लेकिन मुझे ये बेहद पसंद है और इसे पढ़कर समय-समय पर प्रेरणा लेता रहता हूं। मैंने सोचा कि क्यों न इसे आप लोगों के साथ बांटा जाए। इसीलिए यहां प्रकाशित की है। धन्यवाद।
स्मृतियों से कहो
पत्थर के ताबूत से बाहर आने को.
गिर जाने दो
पीले पड़ चुके पत्तों को,
उन्हें गिरना ही है.
बिसुरो मत
ना ही ढिंढोरा पीटो
यदि दिल तुम्हारा सचमुच
प्यार से लबरेज़ है
तब कहो कि विद्रोह न्यायसंगत है।
अन्याय के विरुद्ध
युद्ध को आमंत्रित करो
मुर्दा शांति और कायर निठल्ले विमर्शों के विरुद्ध
चट्टान के नीचे दबी पीली घास
या जज़्ब कर लिए गये आँसू के क़तरे की तरह
पिता के सपनों
और माँ की प्रतीक्षा को
और हाँ, कुछ टूटे-दरके रिश्तों और यादों को भी,
रखना है साथ
जलते हुए समय की छाती पर यात्रा करते हुए
और तुम्हें इस सदी की
ज़ालिम नहीं होने देना है.
रक्त के सागर फिर पहुँचना है तुम्हे
और उससे छीन लेना है वापस
मानवता का दीप्तमान वैभव ,
सच के आदिम पंखों की उड़ान,
न्याया की गरिमा
भविष्य की गरिमा
और भविष्य की कविता
अगर तुम युवा हो.
नोट: ये मेरी रचना नहीं है। मैंने किसी पुस्तिका में इसे पढ़ा था। लेकिन मुझे ये बेहद पसंद है और इसे पढ़कर समय-समय पर प्रेरणा लेता रहता हूं। मैंने सोचा कि क्यों न इसे आप लोगों के साथ बांटा जाए। इसीलिए यहां प्रकाशित की है। धन्यवाद।
एक सुन्दर एहसास।बहुत बढिया रचना है। बधाई।
बहुत सुंदर आप की यह रचना. धन्यवाद
भई आप की एक रचना छुप छुप के.... वाली कहां गई?
राज जी
संपादित करते वक्त वह पोस्ट ड्राफ्ट के रूप में सेव हो गई थी। इस वजह से ब्लॉग से हट गई थी। उसे पुनर्प्रकाशित कर दिया है।
बढ़िया लिखते हो आदर्श.लिखते रहो. ये अभ्यास अच्छा है.कमसे कम दुनियादारी के असलियत की समझ तो बनती है.
Ek bahut badiya rachana pesh kerne ke liye dhanyavaad....
Badhai....
आदर्श जी नमस्कार, आपने अपनी प्रेरणा के स्रोत को हम लोगों तक पहुँचाया इसके लिए धन्यवाद....निसंदेह उत्कृष्ट रचना
kisi ke dar se kabhi rasta mat badlna,
jab bhi chalna to apne jasbe ko sine me nahi hatho me lekar chalna,
aor agar chhalni bhi ho jao,to hatho ko failakar us jasbe ko ajad kar dena, un tamam logo ke liye jo umr se pahle buddhe ho gaye
agar tum yuva ho....
kisi ke dar se kabhi rasta mat badlna,
jab bhi chalna to apne jasbe ko sine me nahi hatho me lekar chalna,
aor agar chhalni bhi ho jao,to hatho ko failakar us jasbe ko ajad kar dena, un tamam logo ke liye jo umr se pahle buddhe ho gaye
agar tum yuva ho....
आदर्श भाई, यह कविता शशिप्रकाश की है। ये ज्यादा चर्चित तो नहीं हैं लेकिन इनकी कविताएं बेहद प्रेरक होती हैं। इनकी एक किताब भी परिकल्पना प्रकाशन से 'कोहकाफ पर संगीत साधना' नाम से आई है।
बहुत बढिया
कविता अच्छी है, वर्तनी की कुछ अशुद्धियां रह गई हैं आदर्श... क्या इसे दुरुस्त किया जा सकता है?
धन्यवाद आदर्श, आपने कुछ गलतियां सुधार दी हैं...
सच में प्ररेणादायक रचना है ये। पढ़वाने के लिए शुक्रिया।
cool blog