जी हां. अगर आपके पास कोई काम नहीं है, बोर हो रहे हैं तो आतंकियों के पक्ष में उतर आइए। भई जब देश भर में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में ऐसी ही होड़ मची है तो आप हम भला क्यों पीछे रहें? इसके लिए आपको ज्यादा कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। आपको सिर्फ वोट डालने जाना है। न भी जाएं तब भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा लेकिन अगर आप वोट डालते हैं आपको इस बात का गर्व रहेगा कि आपने ये काम लोकतांत्रिक ढंग से किया है।
भई आप कुछ करें या न करें। हमारे भारत के हालात यही हो गए हैं। राजनेताओं ने देश को बांट खाने का बीड़ा उठा लिया है। याद है आपको कई हज़ार करोड़ का स्टांप पेपर घोटाला और उसे अंजाम देने वाला अब्दुल करीम तेलगी (शख्स को उसके धर्म से जोड़ना या न जो़डना आप पर निर्भर करता है)? उस वक्त जब तेलगी का नार्को टेस्ट कराया गया था तो उसने छगन भुजबल समेत कई नेताओं के नाम उगले थे। लेकिन महाराष्ट्र सरकार ने नार्को टेस्ट प्रक्रिया को नामंजूर कर उन नेताओं के खिलाफ़ जांच कराने से मना कर दिया था। उस वक्त सरकार ने तर्क दिया था कि नार्को टेस्ट की प्रामाणिकता नहीं है। आज वही सरकार और उसके अधीन काम करने वाली एटीएस एक के बाद एक कई नार्को कराकर प्रज्ञा समेत दूसरे आरोपियों को निशाना बना रही है। ये बाद की बात है कि प्रज्ञा दोषी है या नहीं, लेकिन एक बात साफ़ है इस देश में कानून व्यवस्था नाम की कोई चीज़ नहीं है। दोहरे मापदंड अपनाए जाते हैं।
याद है आपको निर्भय सिंह गुर्जर? एक ऐसा डकैत जो बीहड़ों में दशकों तक राज करता रहा। उसे न तो एसटीएफ न ही पुलिस कभी पकड़ पाई। लेकिन जैसे ही उसने एक समाचार चैनल को दिए इंटरव्यू में ये कहा कि उसके मुलायम सिह से पारिवारिक रिश्ते हैं और उन्ही ने उसे पनाह दे रखी है तो एक महीने के अंदर उसे ढेर कर दिया गया। आखिर ये कैसे हुआ? साफ है निर्भय को राजनेताओं ने इस्तेमाल किया लेकिन जब अपनी पोल खुलती नज़र आई तो उसे मरवा दिया। वीरप्पन के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। ठीक इसी तरह से नक्सलवाद चल रहा है।
संसद पर हमले के दोषी अफज़ल की फांसी पर रोक लगाई जाती है तो इसलिए कि मुस्लिमों की भावनाओं को ठेस पहुंचेगी। अरे मूर्खों, किसी अपराध के लिए अगर किसी को सज़ा दी जाती है तो वो इसलिए ताकि आगे लोग इससे सबक लें और उस अपराध को करने से डरें। अफज़ल की फांसी पर देरी पर शीला दीक्षित कहती हैं कि ये सामान्य प्रकिया है। अन्य मामलों की तरह ये फाइल अभी विचाराधीन है। कुल 50 के करीब मामले इस वक्त राष्ट्रपति के पास विचाराधीन हैं। लेकिन क्या राष्ट्रपति जी गैरज़रूरी यात्राओं और सम्मेलनों (क्यूंकि संवैधानिक तौर पर भी महामहिम को देशलाभ के फैसले करने का अधिकार नहीं है) ये समय निकालकर विचार नहीं कर सकते इन मामलों पर? और हमेशा से राष्ट्रपति के सलाहकार ही इस बात का फैसला करते हैं, तो क्यूं नहीं मामले को तुरंत देखा जा रहा है? ये वैसे भी कोई साधारण मामला नहीं है, देश की सर्वोच्च संस्था पर हमले का मामला है, देश की गरिमा, मर्यादा का मामला है। इस तरह की घटनाओं से आतंकियों के मंसूबों को और हौसला मिल रहा है। अफज़ल को तो तुरंत फांसी लगा देनी चाहिए वो भी चौराहे पर। जो लोग अफज़ल की सज़ा पर शक जता रहे हैं उनके साथ भी यही करना चाहिए क्यूंकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सवाल खड़ा करने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है। इन नेताओं ने इस देश की हालत ख़राब कर रखी है।
इन नेताओं को जब छींक भी आती है तो फोर्टिस, अपोलो और एम्स में इलाज कराते हैं और गांवो में लोग बिना ईलाज के मर जाते हैं। खुद के बच्चे तो विदेशों में पढ़ते हैं, और बात सरकारी स्कूलों के विकास की करते हैं। किसी नेता के बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं? दलित के घर में खाना खाना, मिट्टी ढोना आपको सुर्खियों में ला सकती है लेकिन जनता मूर्ख नहीं है। वो सब जानती है। नौटंकी और भावनाओं में भेद पता है जनता को।
हर वक्त सत्ता की जुगत में लगे ये नेता पागल हो गए हैं। किसी को जनता से सरोकार नहीं है। दुख होता है कि हमें अपने नेता का चुनाव उन लोगों में से करना पड़ता है जिनका निर्धारण लालची और पैसापरस्त पार्टियों ने किया होता है। मैं लोकतंत्र में अपना विश्वास खो रहा हूं। अगर मनमानी ही सहनी है तो सबसे बढ़िया है कि किसी तानाशाह के अधीन रहा जाए। कम से कम वो एक दिशा में तो काम करेगा। नहीं तो यहां सरकारें बदलती हैं और फैसले भी बदल देती है। पिसती है तो बेचारे हम और आप....।
इसलिए हमारे पास एक ही विकल्प है या तो क्रांति करें, विद्रोह करें या फिर ऐसे लोगों को वोट देकर चुनते रहें जो भ्रष्टाचार और आतंकियों का मनोबल बढ़ाते हों। तीसरा कोई विकल्प नहीं है बंधु।
भई आप कुछ करें या न करें। हमारे भारत के हालात यही हो गए हैं। राजनेताओं ने देश को बांट खाने का बीड़ा उठा लिया है। याद है आपको कई हज़ार करोड़ का स्टांप पेपर घोटाला और उसे अंजाम देने वाला अब्दुल करीम तेलगी (शख्स को उसके धर्म से जोड़ना या न जो़डना आप पर निर्भर करता है)? उस वक्त जब तेलगी का नार्को टेस्ट कराया गया था तो उसने छगन भुजबल समेत कई नेताओं के नाम उगले थे। लेकिन महाराष्ट्र सरकार ने नार्को टेस्ट प्रक्रिया को नामंजूर कर उन नेताओं के खिलाफ़ जांच कराने से मना कर दिया था। उस वक्त सरकार ने तर्क दिया था कि नार्को टेस्ट की प्रामाणिकता नहीं है। आज वही सरकार और उसके अधीन काम करने वाली एटीएस एक के बाद एक कई नार्को कराकर प्रज्ञा समेत दूसरे आरोपियों को निशाना बना रही है। ये बाद की बात है कि प्रज्ञा दोषी है या नहीं, लेकिन एक बात साफ़ है इस देश में कानून व्यवस्था नाम की कोई चीज़ नहीं है। दोहरे मापदंड अपनाए जाते हैं।
याद है आपको निर्भय सिंह गुर्जर? एक ऐसा डकैत जो बीहड़ों में दशकों तक राज करता रहा। उसे न तो एसटीएफ न ही पुलिस कभी पकड़ पाई। लेकिन जैसे ही उसने एक समाचार चैनल को दिए इंटरव्यू में ये कहा कि उसके मुलायम सिह से पारिवारिक रिश्ते हैं और उन्ही ने उसे पनाह दे रखी है तो एक महीने के अंदर उसे ढेर कर दिया गया। आखिर ये कैसे हुआ? साफ है निर्भय को राजनेताओं ने इस्तेमाल किया लेकिन जब अपनी पोल खुलती नज़र आई तो उसे मरवा दिया। वीरप्पन के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। ठीक इसी तरह से नक्सलवाद चल रहा है।
संसद पर हमले के दोषी अफज़ल की फांसी पर रोक लगाई जाती है तो इसलिए कि मुस्लिमों की भावनाओं को ठेस पहुंचेगी। अरे मूर्खों, किसी अपराध के लिए अगर किसी को सज़ा दी जाती है तो वो इसलिए ताकि आगे लोग इससे सबक लें और उस अपराध को करने से डरें। अफज़ल की फांसी पर देरी पर शीला दीक्षित कहती हैं कि ये सामान्य प्रकिया है। अन्य मामलों की तरह ये फाइल अभी विचाराधीन है। कुल 50 के करीब मामले इस वक्त राष्ट्रपति के पास विचाराधीन हैं। लेकिन क्या राष्ट्रपति जी गैरज़रूरी यात्राओं और सम्मेलनों (क्यूंकि संवैधानिक तौर पर भी महामहिम को देशलाभ के फैसले करने का अधिकार नहीं है) ये समय निकालकर विचार नहीं कर सकते इन मामलों पर? और हमेशा से राष्ट्रपति के सलाहकार ही इस बात का फैसला करते हैं, तो क्यूं नहीं मामले को तुरंत देखा जा रहा है? ये वैसे भी कोई साधारण मामला नहीं है, देश की सर्वोच्च संस्था पर हमले का मामला है, देश की गरिमा, मर्यादा का मामला है। इस तरह की घटनाओं से आतंकियों के मंसूबों को और हौसला मिल रहा है। अफज़ल को तो तुरंत फांसी लगा देनी चाहिए वो भी चौराहे पर। जो लोग अफज़ल की सज़ा पर शक जता रहे हैं उनके साथ भी यही करना चाहिए क्यूंकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सवाल खड़ा करने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है। इन नेताओं ने इस देश की हालत ख़राब कर रखी है।
इन नेताओं को जब छींक भी आती है तो फोर्टिस, अपोलो और एम्स में इलाज कराते हैं और गांवो में लोग बिना ईलाज के मर जाते हैं। खुद के बच्चे तो विदेशों में पढ़ते हैं, और बात सरकारी स्कूलों के विकास की करते हैं। किसी नेता के बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं? दलित के घर में खाना खाना, मिट्टी ढोना आपको सुर्खियों में ला सकती है लेकिन जनता मूर्ख नहीं है। वो सब जानती है। नौटंकी और भावनाओं में भेद पता है जनता को।
हर वक्त सत्ता की जुगत में लगे ये नेता पागल हो गए हैं। किसी को जनता से सरोकार नहीं है। दुख होता है कि हमें अपने नेता का चुनाव उन लोगों में से करना पड़ता है जिनका निर्धारण लालची और पैसापरस्त पार्टियों ने किया होता है। मैं लोकतंत्र में अपना विश्वास खो रहा हूं। अगर मनमानी ही सहनी है तो सबसे बढ़िया है कि किसी तानाशाह के अधीन रहा जाए। कम से कम वो एक दिशा में तो काम करेगा। नहीं तो यहां सरकारें बदलती हैं और फैसले भी बदल देती है। पिसती है तो बेचारे हम और आप....।
इसलिए हमारे पास एक ही विकल्प है या तो क्रांति करें, विद्रोह करें या फिर ऐसे लोगों को वोट देकर चुनते रहें जो भ्रष्टाचार और आतंकियों का मनोबल बढ़ाते हों। तीसरा कोई विकल्प नहीं है बंधु।
आतंकियों का उत्साह बढ़ाने का आव्हान किससे कर रहे हैं आप, वैसे ही कमी है क्या उनका उत्साह बढ़ाने वालों की? कांग्रेस है, सेकुलर हैं, वामपंथी हैं, विचारक हैं, पद्म-बुकर पुरस्कार प्राप्त लेखक हैं बहुत सारे लोग हैं… उनका उत्साह तो वैसे ही बढ़ा हुआ है, असम से लेकर कश्मीर तक चारों ओर उत्साह का वातावरण है…
अच्छा हुआ जो आपकी, तन्त्र से टूटी आस.
हम ही इसकी बदलेंगे, दृढ रखें विश्वास.
रखें दृढ विश्वास, कि भारत पुनः उठेगा.
दुष्ट-तन्त्र के हाथों से यह ना डूबेगा.
कह साधक यह् राज-अनीति और नौकर-शाही.
तौबा करके बोलें, हिन्दू की वाह-वाही.
बहुत ही सुन्दर लिखा , सटीक कहु तो भी चलेगा, लेकिन हम सब को वोट जरुर ओर जरुर डालनी चाहिये, ओर वोट का % ८०,९० के आस पास हो तो यह नेता जो हमारे टुकडो पर ऎश कर रहै है जरुर जागेगे, फ़िर यह ना तो दलित की वोट का लालच रखेगे, ओर नही,अन्य धर्म वालो को सिर्फ़ इस लिये लाली पाप देगे की इन्हे वोट चाहिये , फ़िर इन्हे हमारी वोट का भी लाल्च रहै गा, तो भाई अगर देश को, अपने आप को बचाना है तो अपनी अपनी वोट का इस्तेमाल जरुर करो, फ़िर देखो केसे यह कमीने हमारे आगे पिछे भागते है.
अगर आप के हात मे रोटी है तो कुत्ता दुम हिलाता हुआ आप के पीछे ही आता रहै गा.
धन्यवाद
अत्यंत विचारोतेजक लेख.......एक बात जिस पर मैं थोड़ा प्रकाश डालना चाहूँगा वो है अफ़ज़ल गुरु की फासी...आख़िर अफ़ज़ल गुरु को फाँसी क्यों दी जाए....जब संसद पर हमला हुआ था तो उसमे हमारे किसी नेता को कोई क्षति नहीं हुई थी. जो लोग शहीद हुए वो तो सुरक्षा कर्मी थे.----अगर किसी नेता को गोली लगती या कोई नेता शहीद हो जाता तो कुछ बात बनती.......
अगर आगामी लोकसभा चुनावों मे अफ़ज़ल गुरु कांग्रेस के प्रत्यशी के रूप मे चुनाव लड़े तो ये कोई आश्चर्या की बात नहीं होगी
एक आम आदमी ही बचा है जो चाहता है कि आतंकवाद का अंत हो और आतंकवादिओं को सजा मिले. शायद यह भी इसलिए कि आतंकवादी हमलों का शिकार आम आदमी ही होता है. अब अगर यह आम आदमी भी आतंकवादिओं का उत्साह बढ़ाने लगेगा तो फ़िर यह समाज खत्म, यह देश ख़त्म. आतंकवाद अगर ख़त्म होगा तो यह आम आदमी ही उसे ख़त्म करेगा.
यही तो विडंबना है सुरेश जी
हम चाहकर भी कुछ नहीं कर पाते, आतंक और आतंकियों पर भी राजनीति की जाती है।
इसलिए हमारे पास एक ही विकल्प है या तो क्रांति करें, विद्रोह करें या फिर ऐसे लोगों को वोट देकर चुनते रहें जो भ्रष्टाचार और आतंकियों का मनोबल बढ़ाते हों। तीसरा कोई विकल्प नहीं है बंधु।
बात तो सच ही है...की और कोई विकल्प नहीं है....और यह भी पता नहीं कि इस विकल्प का इस्तेमाल हम कब करेंगे....!!
आदर्श भाई....आपने अपने ब्लॉग के प्ले-बैक में अपनी आवाज दी है...इस तकनीक का मुझे भी खुलासा करें ना....आपका आभारी रहूंगा.....
गोपाल जी,
यही तो रोना है, सुरक्षा कर्मियों की शहादत नहीं दिख रही उन्हें। अगर किसी नेता के साथ कुछ हुआ होता तो देखते आप....
lol,so nice