Aadarsh Rathore
कल तक कैसा आज़ादी भरा जीवन था और आज कैसे कहीं बंध गया हूं पता नहीं चलता। शायद सबकी जिंदगी में ऐसा समय आता है। पहले जब ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद जॉब नहीं मिल रही थी तो परेशान हो गया था। लेकिन अब जॉब मिल गई है तो परेशानियां और भी बढ़ गई हैं। भाग्यशाली हैं वो लोग जो आज भी अपने जन्मक्षेत्र में रह रहे हैं। आज भी उसी परिवेश से जुड़े हुए हैं जिसमें खेलते-कूदते उनका बचपन बीता है। लेकिन मुझ जैसे लोग जो छोटे शहरों या कस्बों से आकर शिक्षा और नौकरी की तलाश में दिल्ली जैसे बड़े शहरों में बस गए हैं उनके दर्द का अंदाज़ा दूसरे लोग नहीं लगा सकते। अपना गांव, अपना घर, खेत-खलिहान बहुत याद आते हैं। हो सकता है कि कुछ एक लोगों को जिन्हें अपना शहर छोड़े साल हो गए हों उन्हें अपने कस्बे या गांव की कम ही याद आती होगी। हो सकता है शहर की चकाचौंध में वो अपनी जड़ों को भूल ही गए हों। लेकिन मुझे तो इन सब की बहुत याद आती है।

मैं हिमाचल प्रदेश के मंडी ज़िले का रहने वाला हूं और पिछले साढे तीन सालों से दिल्ली में हूं। हालांकि इस दौरान कई बार घर आना-जाना लगा रहा लेकिन उसका कोई मतलब नहीं रहता। थोड़े दिन के लिए ही जाना होता था, ऊपर से आने-जाने में ही दो दिन नष्ट हो जाते हैं। ऐसे में मैं ढंग से अपने में नहीं घूम पाया। होली पर गया था। ऐसे में कहां आदमी घूम फिर पाता है।
कितना अच्छा रहता अगर मैं वहीं रहता, अपने जन्मक्षेत्र में। मेरे दिल में बड़ी तमन्नाएं हैं अपने इलाके के प्रति।

मेरे घर का छायाचित्र

जब मैं छोटा था तो हम लोग खेती किया करते थे। सोकर उठते ही हम सब भाई-बहन खेतों मे पहुंच जाते। हमारा काम मात्र मिट्टी के ढेले तोड़ना होता। इसी बीच मम्मी नाश्ता लेकर आ जाती। नीलू और बादामी नाम के दोनों बैलों को हल से अलग कर चरने के लिए आज़ाद कर दिया जाता और हम लोग फिर साथ बैठकर खेतों में ही नाश्ता करते। कितना गजब का अनुभव है। वैसे भी संयुक्त परिवार यानि ज्वाइंट फैमिली का हिस्सा होना खुद में ही अलग अहसास है। अब सब लोग अपने-अपने कार्यक्षेत्रो में इतना व्यस्त हैं कि खेती का काम छूट सा गया है। मुझे बुरा लगता है जब आसपास के सभी खेत लहलहा रहे होते है और बीच में हमारे खेत वीरान पड़े होते हैं। मेरा मन करता है कि मैं फिर से घर जाउं, बैलों की एक जोड़ी खरीदूं और फिर से अपने खेतों में फसल उगाऊं।


घेरे वाला घर मेरा है, देखने के लिए यहां क्लिक करें

शाम होते ही घर की याद सताने लगती है। जब सब लोग रसोई में चूल्हे के पास पालथी लगाकर बैठते हैं और ताई जी गर्मा-गर्म रोटियां परोसती हैं। साथ में मक्खन का बड़ा सा कटोरा, पड़ा रहता जिसे और कोई तो खाता नहीं बस अकेले मैं ही साफ कर देता। इधर दिल्ली में ढंग की चाय नहीं मिलती तो खाना तो दूर की बात है। मेरा बस चले तो मैं तो दिल्ली को तब तक के लिए नमस्कार कह दूं जब तक कि एक सांसद के रूप में चुनकर नहीं आता। मन कर रहा है कि तुरंत घर भाग जाऊं। लेकिन क्या करूं, मजबूर हूं। फरवरी माह में छोटे मामा की शादी है। अब तय कर लिया है कि तब हर हाल में घर जाऊंगा। भले ही इसके लिए कुछ भी करना पड़े। इस भागदौड़ भरी ज़िंदगी से ब्रेक भी मिल जाएगा और नव स्फूर्ति, नव प्राण शक्ति का संचार भी होगा।
15 Responses
  1. kya gajab ki smriti ko aapne chitrit kiya hai bahot khub behad umda lekhan .. ab to muje bhi apne gaon ki yaad aane lagi .......oh.


  2. अपने कैरियर के कारण घर की यादों को तो भूलना ही पडता है। आपने हमें भी बचपन की याद दिला दी। जॉब के लिए बहुत बहुत बधाई।


  3. अपना घर,गाँव तो सबको ही याद आता है परन्तु जब वे इतने सुन्दर हों और दिल्ली की भीड़ और दड़बे से घर हों तो आपको घर और भी अधिक याद आएगा ही ! आप कम से कम घर जा तो पाते हैं यही गनीमत मानिए । वैसे समय के साथ दिल्ली की भी आदत पड़ जाएगी । काश, पहाड़ों में भी अधिक नौकरियाँ होतीं । यादों का सुन्दर चित्रण किया है ।
    घुघूती बासूती


  4. बहुत सही कहा है...घर की कोई कीमत नहीं...बेशकीमती चीज होती है घर और जब छूट जाता है तब इसकी असली कीमत पता चलती है...
    नीरज


  5. mehek Says:

    bahut sundar ghar aur usse judi bhavnaye


  6. मैं तो वैसे ही नॉस्टेल्जिया का शिकार हूं, ऊपर से आपकी यह पोस्ट पढ़ लिया। लगता है अब खैर नहीं। वैसे जन्मभूमि और दिल्ली प्रवास के प्रति औ आपकी और मेरी भावनाएं सर्वथा मिलती हैं। लेकिन कहते हैं कि मजबूरी का नाम महात्मा गान्धी। वहीं,फिर सोचता हूं कि एक जवान आदमी मजबूर कैसे हो सकता है? उसे तो अपनी शर्तों पर जिन्दगी जीना चाहिए। सरकार की नीतियां भी खराब हैं, अवसर सिर्फ एनसीआर में ही क्यों?


  7. मैं तो वैसे ही नॉस्टेल्जिया का शिकार हूं, ऊपर से आपकी यह पोस्ट पढ़ लिया। लगता है अब खैर नहीं। वैसे जन्मभूमि और दिल्ली प्रवास के प्रति औ आपकी और मेरी भावनाएं सर्वथा मिलती हैं। लेकिन कहते हैं कि मजबूरी का नाम महात्मा गान्धी। वहीं,फिर सोचता हूं कि एक जवान आदमी मजबूर कैसे हो सकता है? उसे तो अपनी शर्तों पर जिन्दगी जीना चाहिए। सरकार की नीतियां भी खराब हैं, अवसर सिर्फ एनसीआर में ही क्यों?


  8. अरे पत्थर दिल बनो भाई हम ने ३० साल से अपना घर (जिसे हम ने बचपन मै अपने छोटे छोटे हाथ से बनाया था)उस घर की एक एक ईंट पता है किस ने लगाई, उसे छोड आये, अब जाते है तो बही घर बेगाना सा लगता है,दिल करता है सब पुराने साथियो से मिले, लेकिन अब भावनओ को समझने वाला शायद ही कोई हो,यही तो जिन्दगी है, हिम्मत करो
    धन्यवाद


  9. अच्छा लगा आपका अपनी जमीन से जुड़ाव देख कर. सांसद बन कर आने की तमन्ना है तो गांव जाकर काम करें तब ही तो जीत पायेंगे.


  10. Amit Says:

    अपने घर-गांव से किसे प्यार नहीं? और कौन नहीं चाहता इस कृत्रिम दुनिया से दूर पुरानी यादों में लौटना...लेकिन, क्या करें दोस्त...यही दस्तूर है....कुछ पाने की हसरत में इंसान को बहुत कुछ खोना पड़ता है। अब तो निदा फाजली को वो पंक्तियां याद आती हैं ....कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, कहीं ज़मीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता।

    अमित


  11. असां जो भी घरे दी बड़ी याद औंदी. इस करी नै इक रस्‍ता असां भी बणाया है. एह रस्‍ता मुंबई ची होई नै जांदा. तुसां दा स्‍वागत है. www.himachalmitra.com


  12. Anonymous Says:

    where you come from!


  13. मेरे मत से दुनिया मे कहीं भी काम की कमी नहीं है बस रिस्क लेने की हिम्मत होनी चाहिए मैंने तय किया है की अपना घर छोड़ के कहीं नहीं जाऊँगा
    बाहर जा के पढ़ लिया काम अपने इलाक़े मे ही करूँगा चाहे कितना नुकसान हो जाए
    खुद अवसर बनूँगा और दूसरो को भी दूंगा

    आपके पास तो घर जमीन सब है जाइए वापस वहाँ आप जैसा कोई नहीं होगा दिल्ली मे लाखों हैं

    माफी चाहूँगा थोड़ा सख्त लिखा है पर कुछ नया करना है तो ऐसा ही होना होगा


  14. Anonymous Says:

    bilkul man to karta hai fir se bailo ki jodi kharid kar kheti karne ka par kya naye bail vahi khushi de payenge? mere vichr me nahin. shayd vo bailon se badh kar parivar ka ek abhinn ang the. mera to adhiktar samay vahin beeta karta tha. am i right?


  15. Neha Pathak Says:

    lekin mera anubhav to kuchh aur hi hai....hum apni jagah ko chhod kar chale aate hai aur sochte hai waha sab uchh waisa hi rahega...par sab badal jaata hai...
    ek baar apne puraane shahar ko chhodne ke 4 saal baad waapaa jaane ka mauka mila...shahar to waisa hi tha par log badal gaye the...jinko maine itne lambe antaraal ke baad bhi ek nazar mei hi pehchaan liya, unhone seedhe muh se baat tak na ki....mujhe sab yaad the, par sab mujhe bhool gaye the....dukh laga ye sochkar ki mai to sabko yaad kar kar ke aaso bahaati rahe, aur log mera chehra bhi bhool gaye...
    ab fir kabhi jaane ka mauka mile to mai apna puraana vidyalaya hi dekh aaungi, par kisi se nahi miloongi.
    waise bhi aajkal kaun aise vyakti se sarokaar rakhna chahega jo uske kisi bhi kaam na aaye...