पिछले कुछ दिनों से मैं कई ब्लॉग्स में गया जिनमे दंगों के ऊपर चर्चा हो रही थी। किसी ने दंगों को में मुस्लिमों के खिलाफ़ हो रही हिंसा को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया है तो किसी ने मुस्लिमों को ही पूरे फ़साद की जड़ करार दिया है। हैरानी की बात तो ये है कि महान विचारक और प्रबुद्ध कहलाए जाने वाले लोगों ने भी ऐसी बातें कहीं है जिसकी उनसे उम्मीद नहीं की जा सकती। लोगों ने मुस्लिमों के खिलाफ हो रही हिंसा में बटला हाउस एनकाउंटर प्रकरण को भी सम्मिलित कर दिया है। खासकर यही मुद्दा पिछले दिनों देश भर के गली मोहल्ले से लेकर राजनीति के गलियारों तक छाया रहा। राजनेता तो राजनेता, बड़े-बड़े ‘समाज सेवी’, मानवाधिकार के प्रणेता और अरुंधति रॉय जैसे लोग इस घटना की न्यायिक जांच की मांग करते नज़र आए। मैं पूछना चाहता हूं अमर सिंह और अरुंधति रॉय से कि वो क्यूं नहीं करोल बाग की गली नम्बर 11 गए जहां पर कई घरों के चिराग़ बुझ गए ? क्यूं नहीं आप देश भर में धमाकों के बाद पीड़ित परिवारों से मिले? आपको धमाकों में मारे गए लोगों के परिजनों की व्यथा क्यूं नहीं दिखती? क्यूं नहीं आप उनके लिए मुआवज़े की मांग करते? आखिर आपने इन आतंकी घटनाओं के लिए दोषी लोगों को पकड़ने के लिए क्यूं नहीं मांग की? क्यूं नहीं रैली करके ‘जन जागरण’ करने की कोशिश की? क्यूं आपको बटला हाउस में हुई घटना पर संदेह होने लग गया?
अमर सिंह तो राजनेता है, और उनका स्तर क्या है सबको मालूम है। उन्हें न तो किसी के हित की फिक्र है न किसी के दर्द का अनुभव। एक ऐसा शख्स जो निज लाभ के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। इस बात को साबित करने की ज़रूरत भी नहीं कि अमर सिंह ने न्यायिक जांच की मांग क्यूं की। और बाकी नेताओं ने इस पर जो भी बयान दिए वो भी मायने नहीं रखते। इस बात को भारत का मुस्लिम भी अब समझ गया है कि किस तरह उसे राजनेताओं ने हमेंशा से अपने हित साधने के लिए प्रयोग किया है। सबको पता है कि अमर सिंह जैसे सभी मौका परस्त लोग महज नकली सहानुभूति दिखाते हैं, लेकिन! हैरान करने वाली बात है वहां पर अरुंधति रॉय का जाना।
मैं अकेले अरुंधति पर ही नहीं बल्कि उन जैसे हर उस व्यक्ति की नीयत पर सवाल उठाना चाह रहा हूं जो आतंक के खिलाफ़ कभी खड़े नहीं हुए, कभी सरकार से आतंकियों के खिलाफ़ कार्रवाई करके पीड़ित लोगों को न्याय दिलाने की मांग नहीं की, लेकिन बटला हाउस में हुए एनकाउंटर में मारे चरमपंथियों की मौत पर उन्हें अफ़सोस होने लग गया। सवाल सिर्फ इसलिए उठ रहे हैं कि मामला मुस्लिमों का है। जब कभी किसी हिंदू बहुल इलाके में घुसकर किसी बंटी गिरोह या किसी अन्य माफिया या दुर्दांत अपराधी को मारा गया तो किसी ने सवाल नहीं उठाए। प्रशासन की उस कार्रवाई पर सबको भरोसा होता है। हम अपनी पुलिस की दाद देते हैं लेकिन जैसे ही मामला मुस्लिमों का हो गया, वैसे ही शीत निद्रा में सोए समाज सेवी और मानवाधिकारों के पैरोकार दहाड़ते हुए बाहर निकलते हैं।
मैं सवाल करना चाहता हं न्यायिक और निष्पक्ष जांच की मांग करने वालों से कि अगर आपको इस देश की पुलिस पर विश्वास नहीं है तो आपको उस जांच की रिपोर्ट पर कैसे भरोसा होगा जिसे इसी देश की सरकार नियुक्त करेगी? ये महज राजनीति है।
अरुंधति रॉय जैसे लोग इस तरह अपनी POLITICAL DESIRES को साध रहे हैं। ज़रूरी नहीं कि चुनावों में भाग लेना, नारेबाज़ी करना, रैली निकालना ही राजनीति होती है, बल्कि चर्चा में रहने और अपने अस्तित्व की उपस्थिती कराते रहने के लिए मानव जो कोई कार्य करता है वह भी राजनीति ही होती है। वह अपना प्रभाव चाहता है । महान विचारक के अरस्तु ने कहा था कि राजनीति की शुरुआत तब से है जब से मानव ने समूहों में रहना शुरू किया। तो ठीक इसी तरह बड़े-बड़े लेखक, कलाकार, जिनके पास पैसा तो बहुत हो जाता लेकिन काम कोई नहीं रहता तब वो अपने राजनैतिक लक्ष्यों को साधने के लिए ‘समाज सेवा’ का रास्ता चुनते हैं। इस तरह एक तो उनका मन लगा रहता है और दूसरे वो चर्चा में भी बने रहते हैं। इसलिए किसी आम आदमी के मुद्दे से तो ये लोग जुड़ेंगे नहीं। कोई ऐसा मुद्दा चुनेंगे जिससे एकाएक लाभ होने की उम्मीद हो। ऐसे में इनका मुस्लिम समुदाय से जुड़े किसी मुद्दे से जुड़ना लाजिमी हो जाता है। भारत में हमेशा से ही मुस्लिमों का इस्तेमाल किया जाता रहा है। लोग नकली सहानुभूति के नाम पर जन अपेक्षाओं से खिलवाड़ करते हैं और अपना हित साधकर आगे बढ़ जाते हैं। इसलिए अरुंधति रॉय जैसे लोग किसी पॉलिटिकल पार्टी से न जुड़ते हुए भी राजनीति कर लेते हैं, इस तरह उनके व्यक्तिगत स्तर पर राजनैतिक हित (चर्चा में रहना और अपने अस्तित्व की उपस्थिती कराते रहना) साध लेते हैं और उन पर राजनेता होने का “लांछन” भी नहीं लगता।
अमर सिंह तो राजनेता है, और उनका स्तर क्या है सबको मालूम है। उन्हें न तो किसी के हित की फिक्र है न किसी के दर्द का अनुभव। एक ऐसा शख्स जो निज लाभ के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। इस बात को साबित करने की ज़रूरत भी नहीं कि अमर सिंह ने न्यायिक जांच की मांग क्यूं की। और बाकी नेताओं ने इस पर जो भी बयान दिए वो भी मायने नहीं रखते। इस बात को भारत का मुस्लिम भी अब समझ गया है कि किस तरह उसे राजनेताओं ने हमेंशा से अपने हित साधने के लिए प्रयोग किया है। सबको पता है कि अमर सिंह जैसे सभी मौका परस्त लोग महज नकली सहानुभूति दिखाते हैं, लेकिन! हैरान करने वाली बात है वहां पर अरुंधति रॉय का जाना।
मैं अकेले अरुंधति पर ही नहीं बल्कि उन जैसे हर उस व्यक्ति की नीयत पर सवाल उठाना चाह रहा हूं जो आतंक के खिलाफ़ कभी खड़े नहीं हुए, कभी सरकार से आतंकियों के खिलाफ़ कार्रवाई करके पीड़ित लोगों को न्याय दिलाने की मांग नहीं की, लेकिन बटला हाउस में हुए एनकाउंटर में मारे चरमपंथियों की मौत पर उन्हें अफ़सोस होने लग गया। सवाल सिर्फ इसलिए उठ रहे हैं कि मामला मुस्लिमों का है। जब कभी किसी हिंदू बहुल इलाके में घुसकर किसी बंटी गिरोह या किसी अन्य माफिया या दुर्दांत अपराधी को मारा गया तो किसी ने सवाल नहीं उठाए। प्रशासन की उस कार्रवाई पर सबको भरोसा होता है। हम अपनी पुलिस की दाद देते हैं लेकिन जैसे ही मामला मुस्लिमों का हो गया, वैसे ही शीत निद्रा में सोए समाज सेवी और मानवाधिकारों के पैरोकार दहाड़ते हुए बाहर निकलते हैं।
मैं सवाल करना चाहता हं न्यायिक और निष्पक्ष जांच की मांग करने वालों से कि अगर आपको इस देश की पुलिस पर विश्वास नहीं है तो आपको उस जांच की रिपोर्ट पर कैसे भरोसा होगा जिसे इसी देश की सरकार नियुक्त करेगी? ये महज राजनीति है।
अरुंधति रॉय जैसे लोग इस तरह अपनी POLITICAL DESIRES को साध रहे हैं। ज़रूरी नहीं कि चुनावों में भाग लेना, नारेबाज़ी करना, रैली निकालना ही राजनीति होती है, बल्कि चर्चा में रहने और अपने अस्तित्व की उपस्थिती कराते रहने के लिए मानव जो कोई कार्य करता है वह भी राजनीति ही होती है। वह अपना प्रभाव चाहता है । महान विचारक के अरस्तु ने कहा था कि राजनीति की शुरुआत तब से है जब से मानव ने समूहों में रहना शुरू किया। तो ठीक इसी तरह बड़े-बड़े लेखक, कलाकार, जिनके पास पैसा तो बहुत हो जाता लेकिन काम कोई नहीं रहता तब वो अपने राजनैतिक लक्ष्यों को साधने के लिए ‘समाज सेवा’ का रास्ता चुनते हैं। इस तरह एक तो उनका मन लगा रहता है और दूसरे वो चर्चा में भी बने रहते हैं। इसलिए किसी आम आदमी के मुद्दे से तो ये लोग जुड़ेंगे नहीं। कोई ऐसा मुद्दा चुनेंगे जिससे एकाएक लाभ होने की उम्मीद हो। ऐसे में इनका मुस्लिम समुदाय से जुड़े किसी मुद्दे से जुड़ना लाजिमी हो जाता है। भारत में हमेशा से ही मुस्लिमों का इस्तेमाल किया जाता रहा है। लोग नकली सहानुभूति के नाम पर जन अपेक्षाओं से खिलवाड़ करते हैं और अपना हित साधकर आगे बढ़ जाते हैं। इसलिए अरुंधति रॉय जैसे लोग किसी पॉलिटिकल पार्टी से न जुड़ते हुए भी राजनीति कर लेते हैं, इस तरह उनके व्यक्तिगत स्तर पर राजनैतिक हित (चर्चा में रहना और अपने अस्तित्व की उपस्थिती कराते रहना) साध लेते हैं और उन पर राजनेता होने का “लांछन” भी नहीं लगता।
अरे भाई मुद्दा अल्पसंख्यकों का है.......बहुसंख्यकों का नहीं.
जब बहुसंख्यक, अल्पसंख्यक हो जायेंगे तब उनका मुद्दा उठाया जायेगा...
जिन लोगों के नाम आपने लिए हैं, वह और उन जैसे बहुत से लोगों का धंधा है यह. यह नफरत का धंधा करते हैं. इन का काम है समय-समय पर मुसलमानों को मीठा जहर पिलाना ताकि वह हिन्दुओं और इस मुल्क से नफरत करते रहें, और कभी इस मुल्क की मुख्य धारा में शामिल न हो पायें. ऐसे मुसलमान इन के धंधे के लिए जरूरी इनपुट हैं. ऐसे लोग हर जगह हैं, राजनीति में, अखबारों में, टीवी में, शिक्षण संस्थानों में, धार्मिक संस्थाओं में. मीडिया के प्लेटफार्म से यह जहर बांटते हैं.
Satya kathan
cool blog