आज के इस दौर में जहां आधुनिकता के नाम पर पाश्चात्करण की अंधी होड़ मची है, वैसे परिवेश में एक पुराने ख्यालात वाले आदमी का रहना बहुत मुश्किल सा होता हुआ प्रतीत हो रहा है। दूसरों की बात नहीं करता, अपना ही उदाहरण लेकर समझाता हूं। गांव के एक सरकारी स्कूल से पढ़ा, मैट्रिक तक हिंदी माध्यम में ही पढ़ाई की। अपने छोटे कस्बे में था तो अपने हिंदी के ज्ञान के बूते बहुत कूदा करता था। हिंदी में हल्की सी मजबूत पकड़ होने के कारण और हिंदी के भारी भरकम शब्दों का प्रयोग करने के कारण दोस्तों और जानकारों में भी अलग पहचान बनी हुई थी। तब तक मैं हमेशा आगे रहा। अंग्रेज़ी का व्यवहारिक ज्ञान था लेकिन वो इस्तेमाल में नहीं आती थी। लेकिन मैट्रिक के बाद सब विज्ञान विषय लिया था तो हिंदी मीडियम से अंग्रेजी में आने के आरण प्रारंभिक 3-4 महीनों में बहुत समस्या आई थी। खैर इस तरह इंटर भी पास कर ली। दिल्ली आया और यहां पत्रकरिता करने लगा। यहां भी मैंने कोर्स के लिए हिंदी मीडियम चुना। कोर्स पूरा हो गया और आज एक हिंदी चैनल में काम कर रहा हूं।
वो सब बातें तो ठीक लेकिन आज एक चीज़ मैं महसूस करता हूं। आज के परिवेश में हर कोई हिंदी के बजाय अंग्रेजी को ज्यादा तवज्जो दी जाती है। किसी भी लिखित काम से लेकर मौखिर वार्तालाप के लिए भी लोगों की पहली पसंद अंग्रेजी ही है। जब मेरे सामने कोई अंग्रेजी बोलता है तो मैं असहज महसूस करता हूं। ईमानदारी से कहता हूं कि इसका कारण ये नहीं कि मैं अंग्रेजी को नापसंद करता हूं, मैं ये तर्क भी नहीं देना चाहता कि मेरी अंग्रेजी अच्छी है लेकिन मैं मातृभाषा का सम्मान करता हूं. निस्संदेह मैं सम्मान करता हूं लेकिन असहज होने का कारण है अंग्रेजी का उतना अच्छा ज्ञान न होना। कमी महसूस करता हूं कि आज के इस दौर में हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान होना बहुत ज़रूरी है। नहीं तो कई जगह पर आपको एक कदम पीछे रहना पड़ सकता है।
इस पर ध्यान देने की आवश्यकत्ता है। सरकार को भी चाहिए सरकारी स्कूलों में भी इसी तरह का कुछ माहौल बनाया जाए ताकि न केवल अपनी मातृभाषा हिंदी के पंडित बन सकें बल्कि आज की कार्यभाषा अंग्रेजी में भी सिद्धहस्त हो सकें। और ये कोई जटिल काम नहीं है। सरकारी स्कूलों में टाई, स्कर्ट और डेस्क आदि की व्यवस्था करने से स्थिती नहीं सुधरेगी, न ही बच्चे प्राइवेट स्कूलों के बच्चों का मुकाबला इस क्षेत्र में कर पाएंगे। ज़रूरत है एक नीति बनाने की और उसे लागू करने की। लेकिन इस ओर ध्यान देता कौन है?
यही लचरता है कि आज माता-पिता बच्चों को सरकारी स्कूलों के बजाए प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाते हैं।
वो सब बातें तो ठीक लेकिन आज एक चीज़ मैं महसूस करता हूं। आज के परिवेश में हर कोई हिंदी के बजाय अंग्रेजी को ज्यादा तवज्जो दी जाती है। किसी भी लिखित काम से लेकर मौखिर वार्तालाप के लिए भी लोगों की पहली पसंद अंग्रेजी ही है। जब मेरे सामने कोई अंग्रेजी बोलता है तो मैं असहज महसूस करता हूं। ईमानदारी से कहता हूं कि इसका कारण ये नहीं कि मैं अंग्रेजी को नापसंद करता हूं, मैं ये तर्क भी नहीं देना चाहता कि मेरी अंग्रेजी अच्छी है लेकिन मैं मातृभाषा का सम्मान करता हूं. निस्संदेह मैं सम्मान करता हूं लेकिन असहज होने का कारण है अंग्रेजी का उतना अच्छा ज्ञान न होना। कमी महसूस करता हूं कि आज के इस दौर में हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान होना बहुत ज़रूरी है। नहीं तो कई जगह पर आपको एक कदम पीछे रहना पड़ सकता है।
इस पर ध्यान देने की आवश्यकत्ता है। सरकार को भी चाहिए सरकारी स्कूलों में भी इसी तरह का कुछ माहौल बनाया जाए ताकि न केवल अपनी मातृभाषा हिंदी के पंडित बन सकें बल्कि आज की कार्यभाषा अंग्रेजी में भी सिद्धहस्त हो सकें। और ये कोई जटिल काम नहीं है। सरकारी स्कूलों में टाई, स्कर्ट और डेस्क आदि की व्यवस्था करने से स्थिती नहीं सुधरेगी, न ही बच्चे प्राइवेट स्कूलों के बच्चों का मुकाबला इस क्षेत्र में कर पाएंगे। ज़रूरत है एक नीति बनाने की और उसे लागू करने की। लेकिन इस ओर ध्यान देता कौन है?
यही लचरता है कि आज माता-पिता बच्चों को सरकारी स्कूलों के बजाए प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाते हैं।
दीपावली की हार्दिक शुबकामनाएं
आपने मर्ज को कुछ हद तक पहचाना लेकिन न तो उसका सही करण समझ पाये न उसका सही समाधान बता पाये।
पहली बात तो यह कि ऐसी स्थिति जरूर बना दी गयी है कि अंग्रेजी के बिना आपका 'आगे' बढ़ना रोका जा सकता है। लेकिन यह 'रोग' है। इसका समाधान यह नहीं कि सरकारें अंग्रेजी को और बढ़ावा दें। इससे तो यह समस्या और बढ़ेगी। इसके विपरीत इसका समाधान यह है कि अंग्रेजी पर सरकारें और आम जनता अंकुश लगायें। अंग्रेजी को इसकी छूट न दी जाय कि वह आम भारतीय का शोषण कर सके।
इसके लिये सबसे उपयुक्त समाधान यह है कि हिन्दी को उन सभी कायों के लिये मान्यता मिले जो अभी तक केवल अंग्रेजी को मिला हुआ है। जैसे एन डी ए की परीक्षा में केवल अंग्रेजी के बजाय अंग्रेजी अथवा हिन्दी विषय का विकल्प होना चाहिये। न्यायालयों में हिन्दी में भी बहस की स्वीकृति होनी चाहिये। मैनेजमेन्ट की परीक्षाओं में अंग्रेजी विषय का टेस्ट ही नहीं होना चाहिये या फ़िर उसके साथ हिन्दी के विकल्प की भी प्रावधान होनी चाहिये।
हिन्दी भाषी राज्यों के सरकारी कार्यों के लिये हिन्दी के ज्ञान की परीक्षा भी होनी चाहिये क्योंकि तभी ये आम जनता की भाषा में बोल/लिख/समझ पायेंगे।
आज कोई टिप्पणी नहीं; दूँगा सिर्फ बधाई
साल भर के बाद रोशनी फिर से घर-घर आई
रोशनी फिर से आई घर-घर फोड़ो बम-पटाखे
चिंगारी से पर दूर ही रहना, रखना हाथ बचाके
शोर-शराबा, धुँआ-धक्कड़ कम-से-कम ही रखना
हलवा-पूरी यारों के संग चाहे जी-भर चखना।
दीपावली की हार्दिक शुभकामना
- जितेन्द्र भगत
(सौजन्य: कट-पेस्ट विधि द्वारा प्रसारित, क्षमा सहित/वैसे आपका लेख पढ़ने के बाद ये पेस्ट किया है।)
कल टिप्पणी लिखते लिखते रह गया था लेकिन आज वापस आकर लिख रहा हूँ ।
पिछले साल इंजीनियरिंग के एक छात्र ने आत्महत्या कर ली थी कि उसका अंग्रेजी ज्ञान कमजोर था और हिन्दी ब्लाग जगत में हल्ला मच गया था कि कितनी जानें और लेगी अंग्रेजी । अगर वो आत्महत्या करता कि उसका विज्ञान कमजोर है तब भी हम ये ही कहते ?
मेरी सारी पढाई हिन्दी माध्यम से हुयी है, १२वीं तक विज्ञान भी हिन्दी में ही पढा । जब इंजीनियरिंग में गया तो पहले दो सेमेस्टर में Language नाम से एक विषय होता था जिसमें अंग्रेजी पढाई तो नहीं जाती थी लेकिन लिखने/बोलने का मौका मिलता था जिसका खूब फ़ायदा उठाया । बहुत दुख हुआ था एक बार जब Oral Viva में Malleability का अर्थ पूछा गया और बता न सका । जब मेरे पडौसी ने अर्थ बताया तो आत्मा दुख गयी कि ये तो मुझे भी पता था लेकिन मैं तो इसे केवल "आघातवर्धनीयता" के नाम से जानता था ।
उस दिन से निश्चय किया कि इंजीनियरिंग करनी है, आगे उच्चशिक्षा करनी है तो अंग्रेजी सुधारनी ही पडेगी । बात ये नहीं है कि आदर्श स्थिति क्या होनी चाहिये, हमें व्यवहारिकता का भी ध्यान रखना चाहिये ।
मैने यू पी बोर्ड से १९९८ में १२वीं पास की थी । दावे से कह सकता हूँ कि अगर आप मन से पढें तो अंग्रेजी की पाठ्यपुस्तकों का स्तर बहुत अच्छा था ।
और अगर नहीं भी पढा तो क्या हुआ, कितना समय लगेगा अंग्रेजी सुधारने में ? जाईये १०० रूपये की अंग्रेजी ग्रामर की किताब उठा लाईये, कोशिश कीजिये और २-३ महीने में आपका व्याकरण सुधर जायेगा । फ़िर उठाईये अंग्रेजी अखबार और पत्रिकायें और अगले २-३ महीने में आपका शब्दकोश सम्रद्ध होने लगेगा जो निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है । उसके बाद खडे हो जाईये आईने के सामने और चालू हो जाईये अंग्रेजी बोलने के प्रयास में, कब तक नहीं सुधरेगी ससुरी अंग्रेजी ।
अगर विज्ञान सीखना होता है तो भी तो हम ऐसा ही कुछ करते हैं फ़िर अंग्रेजी सीखने में हिचक क्यों अगर लगता है कि इसके सुधरने से कुछ लाभ मिलेगा ?
आज भी अपने पास के कितने लोगो को अंग्रेजी लिखते देखता हूँ जो ३० साल के हो गये हैं लेकिन कुछ गलतियाँ सुधारने का नाम नहीं लेते । "." के बाद स्थान न छोडना, नया वाक्य "Capital letter" से प्रारम्भ न करना आदि आदि, मैं नहीं मानता कि ये सब सुधर नहीं सकता । लोग प्रयास नहीं करते, जब कम्प्यूटर सीख सकते हैं ३० की उम्र में तो कुछ भी सीख सकते हैं ।
हिन्दी अपना प्रेम है और अंग्रेजी व्यवहारिक जरूरत । दोनों का अपना स्थान है ।
मेरा अपना मानना है कि जिनकी अंग्रेजी अच्छी होती है वो कभी इसका प्रदर्शन नहीं करते हैं ।
सही कहा आपने...हैप्पी दिवाली
नीरज जी
प्रेरणा और मार्गदर्शन के लिए धन्यवाद
आगे भी सहयोग देते रहें
i think the archive you wirte is very good, but i think it will be better if you can say more..hehe,love your blog,,,