काम-काज, स्त्री और लघुकथा / बलराम अग्रवाल
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बीसवीं सदी के अन्तिम वर्षों में हिन्दी कथा साहित्य मे स्त्री विमर्श बड़ी
शिद्दत से छाया रहा। उस विमर्श की बात इस लेख में नहीं कर रहे हैं; बल्कि
स्त्री जीव...
उनके घर भले ही कच्चे थे, मगर उनके दिल सच्चे थे
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*घर की मुंढेरें सिसक रही हैं,* दरवाजे खुद को तन्हा महसूस कर रहे हैं, चौखटें
किसी पहाड़ की तरह उदास हैं.. गांव की पगडंडियों को आज भी किसी अपने का इंतज़ार
हैं,...
मम्मा की डायरी- कुछ पन्ने यूं हीं
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17 मई की संध्या। इंडिया हैबिटेट सेंटर का केसोरिना हॉल। जब हम पहुंचे तो हॉल
में गिनती के लोग। देखते ही देखते हॉल में बच्चों की शैतानियां शुरू हो गईं।
मम्मिय...
बादल फटना- प्राकृतिक आपदा या कुछ और....
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उत्तराखंड में बादल फटने से आई आपदा ने मुझे सोचने पर मजबूर किया कि हर साल
बादल फटने की घटनाएं क्यों बढ़ रही हैं। क्या ये सिर्फ प्रकृति का बदला हुआ
रूप है। ...
यूपीएससी के रिजल्ट के अगले दिन मेरा दिन खराब...
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* सिविल सर्विसेज का जब भी रिजल्ट आता है...उस दिन मेरा दिन ख़राब हो जाता है.*..क्योंकि
सुबह-सुबह ही अख़बार वाले रिजल्ट फ्रंट पेज पर छाप देते हैं औऱ जैसे ही ...
बदक़िस्मत होकर जाना, कितना खुशक़िस्मत था!
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*प्रभाष जी चले गए... अब भी हमें यकीन नहीं हो रहा। ग़मगीन हूं। मेरे एक दोस्त
तनसीम हैदर प्रभाष जी के पड़ोस में रहते हैं। उन्होंने प्रभाष जी के जाने को
जैसा ...
अच्छा है, आतंरिक कुंठा निकल रही रही है |