ये मेरे दिल्ली आगमन से 8-10 महीने पहले की बात है। तब की, जब मैंने पहली बार मोबाइल इस्तेमाल किया था। नोकिया, मॉडल नंबर 3310...। उसे हाथ मे लेकर चलते हुए वही गर्व होता था जैसा कि एक सुंदर युवती का हाथ थामकर घूमने में होता है। उस फोन से मैं प्राथमिकता से तीन कार्य करता था। पहला फोन करना, दूसरा सुनना और तीसरा गेम खेलना। इनमें से अंतिम मेरा पसंदीदा काम था।
उस मोबाइल मे स्नेक 'SNAKE' नाम का एक गेम था। इस गेम में एक साँप का प्रतिरूप कुछ बॉलनुमा चीज़ों को खाता था। हर बॉल को खाने पर उसे कुछ अंक मिलते थे और कुछ मिलीमीटर मे लंबाई बढ़ती थी. 4-5 बॉल खाने के बाद एक बड़ी बॉल स्क्रीन पर उभरती थी उसे खाते ही बिना लंबाई बढ़े कई गुना अंब बढ़ जाते थे। लेकिन ये बड़ी बॉल सीमित समय के लिए ही स्क्रीन पर होती थी। कई बार ये खाने से छूट जाती थी। फिर वही सिलसिला प्रारंभ हो जाता था, एक बड़ी बॉल की चाह मे 4-5 छोटी बॉल के लिए दौड़ और लंबाई वृद्धि। एक औऱ महत्वपूर्ण बात, जिस मैदान मे साँप दौड़ रहा होता था वो भी सीमित होता था। इस गेम में आप कितने भी सिद्धहस्त क्यों न हो जाएं एक समय ऐसा आता था जब स्थान नहीं बचता था। अंतत: सांप खुद से ही टकरा जाता था और खेल खत्म....
मुझे आज भी याद है कि पहली बार खेलते हुए मैंने 96 का स्कोर बनाया था। बहुत खुश हुआ था मैं। फिर तो सिलसिला ही चल पड़ा और मैं 1273 अंकों का सर्वोच्च स्कोर बनाने में सफल रहा। एक बात और उस खेल मे तीव्रता के स्तर भी होते थे और मैं सबसे तीव्र स्तर से एक निचले स्तर पर खेलता था। 1273 स्कोर वाले गेम में भी मेरे साँप को भी जगह नहीं मिली और वो मर गया…
एक दिन हम भी इसी तरह मर जाएंगे, छोटी बॉल खाते हुए बड़ी बॉल पाने की चाह में..। क्योंकि मैदान हमारा भी सीमित है। अपनी बड़ी इच्छाओं की पूर्ति के लिए अतिरिक्त प्रयास करना पड़ता है। समय बीतता जाता है और हम बॉल खाते जाते हैं, लंबाई बढ़ती जाती है और आख़िर मे …..वही शाश्वत सत्य……गेम ख़त्म…
वाह!!! उस गेम के निर्माता ने जीवन और मृत्यु के बीच के संघर्ष को कितनी सहजता से मोबाइल गेम मे ढाल दिया…
उस मोबाइल मे स्नेक 'SNAKE' नाम का एक गेम था। इस गेम में एक साँप का प्रतिरूप कुछ बॉलनुमा चीज़ों को खाता था। हर बॉल को खाने पर उसे कुछ अंक मिलते थे और कुछ मिलीमीटर मे लंबाई बढ़ती थी. 4-5 बॉल खाने के बाद एक बड़ी बॉल स्क्रीन पर उभरती थी उसे खाते ही बिना लंबाई बढ़े कई गुना अंब बढ़ जाते थे। लेकिन ये बड़ी बॉल सीमित समय के लिए ही स्क्रीन पर होती थी। कई बार ये खाने से छूट जाती थी। फिर वही सिलसिला प्रारंभ हो जाता था, एक बड़ी बॉल की चाह मे 4-5 छोटी बॉल के लिए दौड़ और लंबाई वृद्धि। एक औऱ महत्वपूर्ण बात, जिस मैदान मे साँप दौड़ रहा होता था वो भी सीमित होता था। इस गेम में आप कितने भी सिद्धहस्त क्यों न हो जाएं एक समय ऐसा आता था जब स्थान नहीं बचता था। अंतत: सांप खुद से ही टकरा जाता था और खेल खत्म....
मुझे आज भी याद है कि पहली बार खेलते हुए मैंने 96 का स्कोर बनाया था। बहुत खुश हुआ था मैं। फिर तो सिलसिला ही चल पड़ा और मैं 1273 अंकों का सर्वोच्च स्कोर बनाने में सफल रहा। एक बात और उस खेल मे तीव्रता के स्तर भी होते थे और मैं सबसे तीव्र स्तर से एक निचले स्तर पर खेलता था। 1273 स्कोर वाले गेम में भी मेरे साँप को भी जगह नहीं मिली और वो मर गया…
एक दिन हम भी इसी तरह मर जाएंगे, छोटी बॉल खाते हुए बड़ी बॉल पाने की चाह में..। क्योंकि मैदान हमारा भी सीमित है। अपनी बड़ी इच्छाओं की पूर्ति के लिए अतिरिक्त प्रयास करना पड़ता है। समय बीतता जाता है और हम बॉल खाते जाते हैं, लंबाई बढ़ती जाती है और आख़िर मे …..वही शाश्वत सत्य……गेम ख़त्म…
वाह!!! उस गेम के निर्माता ने जीवन और मृत्यु के बीच के संघर्ष को कितनी सहजता से मोबाइल गेम मे ढाल दिया…
एक गेम में भी जीवन दर्शन ढूंढ लिया आपने... वाह...
अच्छा अनुभव है आपका ...मेरी तरह......
.....
यह पोस्ट केवल सफल ब्लॉगर ही पढ़ें...नए ब्लॉगर को यह धरोहर बाद में काम आएगा...
http://laddoospeaks.blogspot.com/2010/03/blog-post_25.html
लड्डू बोलता है ....इंजीनियर के दिल से....
बहुत खूब .......आदर्श जी ने सही कहा ''एक गेम में भी जीवन दर्शन दूंढ लिया '' इसे कहते है ....दार्शिनक सोच .......बहुत बहुत आभार
बहुत अच्छी रचना
गेम और लाइफ के बीच के रिलेशन को थोड़ा और विस्तार से समझाया होता तो शायद और बेहतर होता। फिर भी एक गहरी पोस्ट है।
क्या बात है……………बहुत ही सुन्दरता से जीवन का अर्थ समझा दिया।
उम्दा है.. जीवनचक्र को समेट लिया आपने..
भाई, हमने उसमे ३४०० से अधिक स्कोर किया था अपने मित्र के फोन में.. मेरा मित्र अब वह फोन प्रयोग में नहीं लाता है और मैंने उससे वह फोन ले लिया.. सिर्फ यह दिखने के लिए कि कभी हम इस खेल में माहिर थे.. ;-)
सही कह रहे हैं ,,,और आप ने भी कोई कसर नहीं छोड़ा है.
विकास पाण्डेय
www.vicharokadarpan.blogspot.com
गोपाल भाई आपने बहुत उम्दा लिखा है....लेकिन सांप की विडम्बना देखिये जैसे ही उस खेल में उसका जन्म होता है....उसे तो भागना ही होता है...चाहे वो बॉल को खाये या न खाये....और जैसा कि आपने कहा कि जगह सीमित है...इसलिये उसकी दीवारों से टकराने से भी जान जा सकती है तो उससे भी बचना है...लगता है भगवान कोई खेल खेल रहा है...जिसमें हमें बॉल खानी ही खानी है नहीं तो बेवजह दौ़ड़ते रहेंगे उम्र भर और अगर नहीं दौड़ेगे बचते हुए तो दीवार से टकराकर भी तो जान जायेगी ही....तो खेलना तो पडे़गा ही.....