
यहां तक की महिला वर्ग के साथ भी यही समस्या पेश आती है। इसमें भी अति सावधान रहना पड़ता है। अगर बगल में कोई लड़की खड़ी हो और अगर पीछे से आपको धक्का दे दे तो समझो आपकी खैर नहीं। ओवर लोडेड इस बस में आखिरकार यात्रियों को पायदान पर भी और बस से बाहल लटक कर यात्रा करनी पडती है। किसी भी दुर्घटना के होने की आशंका लगातार बनी रहती है। इस बस का एक और विकल्प है DTC की बस जो सैक्टर 62 तक जाती है लेकिन इसका कोई तय समय नहीं है और तो और अधिकतर स्टॉप्स पर तो इस बस को रोका भी नहीं जाता। ये बस खाली ही नोएडा जाती है। ऐसे में न जाने कितने लोग सफ़र नहीं कर पाते हैं।
फिर एक विकल्प बचता है वो है कॉल सेंटर्स की कैब्स जो अपने कर्मियों को लाने या छोड़ने जा रही होती है। वो डीएनडी से जाते है और प्रत्येक सवारी के हिसाब से 10 रुपये वसूलते हैं। जबकि DTC का किराया 12 रुपये है। साथ ही उन कैब्स में एसी की भी सुविधा होती है। इसके अलावा कई लोग अपने निजी वाहनों में भी लिफ़्ट दे देते हैं। इससे एक तो उनका डीएनडी का टोल बचता है और साथ में यात्रियों को आरामदायक सफ़र भी मिलता है। यानि हर लिहाज से सुखद यात्रा। यही वजह है कि जनता आराम की सवारी चाहेगी, न कि धक्का-मुक्की और भीड़ वाली कोई यात्रा। लेकिन अब एक नया मंजर देखने को मिल लहा है। बस वाले इन कैब्स वालों के शीशे तोड़ने लगे हैं। कल ही मेरे सामने एक बस वाले ने एक कैब को रोका और उसकी फ़्रंट विंड स्क्रीन पर बड़ा पत्थर मारा और बस भगा कर ले गया। मैंने और मेरे दोस्त ने पास जाकर देखा तो बिल्कुल भर्रा के चकनाचूर शीशे का एक कण ड्राइवर की आंख में चला गया था जिससे वो दर्द से तिलमिला रहा था। जैसे तैसे उसकी आंख पानी से धुलाई तब जाकर उसे आराम पहुंचा। ये इस तरह की पहली घटना नहीं है। हर रोज इसी रूट पर कम से कम 5 शीशे टूटते हैं।
मैं मानता हूं कि इस तरह इन कैब वालों का यात्रियों को बिठाना ग़लत है लेकिन इस तरह की सज़ा का अधिकार किसने दिया इन ब्लू लाइन वालों को? क्या बस यही गैरकानूनी है? अदब से देखा जाए तो ओवर लोडिंग कराना भी जुर्म है और उस बस में अगर आप 2 किलो मीटर की यात्रा भी करते हैं तो आपसे जबरन 10 रुपये वसूले जाते हैं। अगर आप इन्कार करें दो गाली देकर आपको धक्का मारकर बाहर निकाल दिया जाता है। क्या ये गैरकानूनी है। कई बार इन घटनाओं के खिलाफ शिकायत भी की गई। लेकिन लगता है 323 रूट किसी रसूख वाले आदमी को मिला हुआ है। यही वजह है कि इन बसों के चालक-परिचालक बस के रूट परमिट को गुंडागर्दी का परमिट मानकर चल रहे हैं। यदि कैब्स में इस तरह यात्रियों का जाना सरकार को ग़लत लगता है तो क्यूं नहीं DTC अपनी इसी रूट की बसें बढ़ाए, लोग क्यूं जाएंगे इन कैब्स में। कैब्स तो वैकल्पिक व्यवस्था है। लेकिन नहीं, इस रूट पर डीटीसी की बसें नहीं आएंगी न ही इनकी संखया बढ़ेगी क्यूंकि ऐसा करने पर 323 रूट पर बस चलाने वाले मालिक को घाटा होगा। और सरकार ऐसा चाहेगी नहीं। ये गहरी सांट-गांठ लगती है। लेकिन इस बीच जनता का हाल बुरा रहेगा। हर हाल में वो ही पिटेगी। उसके पास दो ही विकल्प हैं। या तो वो जोखिम उठाकर 323 का सफ़र करे या कैब में लिफ्ट लेकर जाए जिस पर कोई बस वाला पत्थर मार दे और वो घायल हो जाए। यानि दोनो मामलों में नुक़सान आम-आदमी को ही है। सरकार का क्या है, मंत्री तो लाखों रुपये बैठे-बैठे कमाते हैं और आलीशान कारों की सवारी करते हैं, उन्हें क्या पता रोज़ी रोटी कमाने के लिए अगर नोएडा जाना पड़ता हो तो जान का ख़तरा भी उठाना पड़ता है।
ब्लू लाइन कंडक्टर्स का व्यवहार बहुत जाहिल किस्म का होता | मुझे तो आर्श्चय है कि देश की राजधानी में ऐसे जाहिल किस्म के लोग है इनसे तो जंगली जानवरों का व्यवहार भी अच्छा होता है | r
बिल्कुल सही कहा आपने। आम आदमी को इस देश में जीने का अधिकार है क्या?? मुझे तो आपके लेख से लगता है, कि आप यह समझ रहे हैं कि व्यवस्था में सुधार आने वाली है। अगर व्यवस्था में सुधार करना होता तो नौकरियों का केंद्रीयकरण कुछ बड़े शहरों में नहीं किया जाता। अगर नौकरों को सुविधा से काम करने दिया जाए तो वे उद्योगपतियों को तमाम संकट खड़े कर देंगे। ऐसे में सरकार की नीति तो यही है कि नौकरी करने वाले बस में पिटने और गालियों का प्रतिरोध करने में ही अपनी ऊर्जा खर्च करें। अपने घर के पास न रहें और विस्थापन बना रहे, जिससे उनकी प्रतिरोध क्षमता मरी सी रहे।
हमें यह समझ नहीं आता की देश की राजधानी में ये सब क्यों है. दुसरे शहर वाले तो दिल्ली की बात करने लगे हैं.
भई,
ये सत्येन्द्र जी ने क्या खूब बात कही है?
कंडक्टर्स का दुर्व्यवहार और प्रशासन की अनदेखी समस्याएं यही दो नहीं हैं। सवाल यह है कि हम लिख तो देते हैं मगर क्या प्रशासन पर इसका थोड़ा भी असर दिखाई देता है? जब तक इस व्यवस्था को नहीं बदला जाता तब तक इंसानों का भूसा बनता रहेगा। आखिर कैसे इस व्यवस्था को बदला जा सकता है? व्यथित हूं प्रशासन पर निजी कलम की धार कोई असर नहीं करती और मीडिया को रहती है बाज़ार की चिंता। कहीं कलम के साथ साथ तलवार उठाने की ज़रूरत तो नहीं?
आपने बहुत ही अच्छा लिखा है..आप एक आम आदमी की परेशानियों को लिखा है। दिल्ली के ब्लू लाइन में बस में सफर करना मतलब मुसिबत मोल लेना है। मैं भी रेगुलर बस में यात्रा करती हूं...बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ता है और हम इनके खिलाफ कोई कार्रवाई भी करने वाला नहीं है।
ये बस का सफ़र हिंदी का सफ़र नहीं बल्कि अंग्रेजी का "suffer" है.