1 जनवरी, 2009....रोज़ की तरह इस बार भी कंडक्टर खुले पैसे न होने का बहाना कर रहा था। 12 रुपये का टिकट था और मैंने 15 रुपये दिए, एक दस का नोट और एक पांच का सिक्का। कंडक्टर ने कहा कि 3 रुपये नहीं हैं। चूंकि मैं उसेक बगल में ही बैठा था इसलिए मुझे मालूम था कि अभी-अभी तीन लोगों ने उसे सिक्के दिए हैं। बात साफ थी कि वो बहाना कर रहा है। कई लोग रजनीगंधा चौराहे पर बिना अपने 3 रुपये लिए ही उतर गए थे। क्या करते बेचारे? ऑफिस के लिए देरी हो रही होगी। कंडक्टरों ने ये धंधा ही बना लिया है। कभी पैसे नहीं लौटाते। खैर मैं अपनी जेबें टटोलने लगा ताकि कहीं से दो रुपये निकल आएं। इसी कोशिश में जैकेट की पॉकेट से एक रुपये का सिक्का निकल आया। मैंन चुपचाप वो सिक्का अपनी जेब में रख लिया। इतने में मेरे बगल में बैठे एक भाई साहब अपनी जेब में कुछ तलाशने लगे। थोड़ी देर में एक सिक्का निकाला और कंडक्टर की तरफ बढ़ा दिया और बोले " ये लो एक और रुपया, भाई साहब को पांच का सिक्का लौटा दो", मैं हैरान, मैंने कहा भाई रहने दीजिए...। इस पर वह भद्रजन बोले, भाई साहब आपका नुकसान नहीं होना चाहिए। इन लोगों ने धंधा बना लिया है। इस एक रुपये से अगर पांच रुपये बनते हैं तो अच्छी बात है न? मेरे लाख मना करने के बावजूद उन्होंने वो सिक्का कंडक्टर को थमा दिया। मैंने भी एक रुपया दिया और कंडक्टर ने 5 रुपये का सिक्का दिया। एक रुपये से ज्यादा 3 रुपये होते हैं। मैंने उन भद्र कहा कि भाई साहब 12-22 पहुंचकर आपको पैेस देता हूं। उन्होंने कहा कि अरे कोई बात नहीं। मैं सोचता जा रहा था कि कितने भद्र पुरुष हैं। एक तरफ एक कंडक्टर जो दूसरों का पैसा मार रहा है और दूसरी तरफ ये इंसान जो अपने पैसे से दूसरों को पैसा दिला रहा है। मन में एक अलग किस्म का भाव आया। मैं हैरान था और कृतज्ञ भी। बार-बार उन भाई साहब की तरफ देख रहा था। हल्की बढ़ी दाढ़ी, लाल रंग का जैकेट, गले में मफलर पहने उस शख्स के चेहरे में एक अलग सी चमक थी। देखने में साधारण लग रहे थे, लेकिन मैं उनके असाधारण व्यक्तित्व का साक्षी बन गया था। 12-22 (बस का अंतिम स्टॉप) आते ही मैं बस से उतरा और मूंगफली वाले से 5 रुपये के बदले सिक्के लिए। सिक्के लेते ही मैं उन भाई साहब की तरफ मुड़ा तो देखा वो वहां नहीं थे। मैंने इधर-उधर नज़र घुमाई तो देखा कि वो दूर एक रिक्शे पर सवार होकर जा रहे हैं। मैंने एक नज़र अपनी हथेली पर बिखरे पड़े उन सिक्कों की तरफ देखा।
पांच रुपये, जो मेरे हाथ में सिर्फ एक सिक्के की वजह से आए थे। वो सिक्का जो एक मेहनतकश और ईमानदार शख्स ने दिया था। एक ऐसे शख्स ने जिसने एक ऐसा उदाहरण पेश किया जिसने मुझे बहुत कुछ सिखा दिया। मैंने आज भी वो सिक्के संभाल कर रखे हैं। मैं उन्हें खर्च नही कर सकता, असल में वो मेरे हैं ही नहीं, अगर वो भाई साहब एक रुपया नहीं देते तो मैं यूं ही बिना पैसे दिए बस से उतर जाता। वो मात्र सिक्के नहीं है, वो एक आदर्श है, एक ऐसी अनोखी घटना की यादगार जिसे दुनियावाले कपोल कल्पना करार देंगे।
गज़ब का संस्मरण सुनाया आपने ! ऐसे अच्छे लोग अभी भी हैं !
वाकई में आदर्श जी इस दुनिया में अभी भी कुछ सच्चाई और ईमानादारी बाकी है तभी तो ये दुनिया चल रही है....
nice post as ever
आजकल हर कोई इसी सब्जेक्ट पर लिख रहा है
और कोई विषय नहीं रहा क्या
वैसे अच्छा संस्मरण
अच्छा संस्मरण
कभी मेरे ब्लॉग पर भी आएं
www.kalam-dawat.blogspot.com
ऐसे लोग कम ही देखने को मिलते हैं..
AISE LOGO KE KARAN HI YE DUNIYA CHAL RAHI HAI..WARNA WO TO ISE KABHI KA BECH KHAATE....
अच्छा संस्मरण
post padh kar yakeen nahi hota....kya delhi main aise log bhi hain...!it's a nice one