लोकतंत्र के महायज्ञ के नाम पर जनता के धन की आहुति दी जा रही है। जी हां, एक ओर पूरी दुनिया आर्थिक मंदी के दौर से गुज़र रही है वहीं इन चुनावों में पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है। पांच आहुतियों वाले इस यज्ञ में कुल मिलाकर दस हज़ार करोड़ रुपये खर्च होंगे, जी हां पूरे 10,00,00,00,00,000 रुपये। अभी हाल ही में अमेरिका में हुए राष्ट्रपति चुनाव में 8000 करोड़ रुपये का खर्च आया था। यानि विकासशील भारत ने अमेरिका को भी पीछे छोड़ दिया। इससे भी बड़ी बात ये है कि अमेरिका में इतना खर्च एक साल के चुनाव प्रचार के दौरान आया है जबकि भारत में महज ढाई महीने के अंदर ही दस हज़ार करोड़ रुपये स्वाह कर दिए जाएंगे।
सीएमस के सर्वे के मुताबिक:
कौन करेगा कितना खर्च :-चुनाव आयोग : 1300 करोड़ रु.
केंद्रीय व राज्य एजेंसियां : 700 करोड़ रु.
पार्टी फंड : 1650 करोड़ रु. जिनमें क्षेत्रीय दलों के उम्मीदवार : 1000 करोड़ रुपए खर्च करेंगे।
केंद्रीय स्तर के उम्मीदवार : 4350 करोड़ रु.
मतदाताओं को लुभाने में: 2500 करोड़ का खर्च होगा
कब कब हुआ कितना खर्च :-वर्ष 1991 आम चुनाव :- 1700 करोड़ रु
वर्ष 1996 आम चुनाव :- 2200 करोड़ रु
वर्ष 1998 आम चुनाव :- 3200 करोड़ रु
वर्ष 2004 आम चुनाव :- 4500 करोड़ रु
अब इतना पैसा फूंका भी जा रहा है तो क्यों? महज लोकतंत्र की परंपरा को जारी रखने के लिए? जी हां, चुनाव एक परंपरा बन गया है। इन चुनावों का जनता के लिए कोई महत्व नहीं बचा। इतना खर्च होने के बाद जिन लोगों पर जनप्रतिनिधी होने का ठप्पा लगता है, वो जी जान से नोट छापने में लग जाते हैं। आज़ादी से साठ साल बीत गए हैं लेकिन बुनियादी सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं हैं। जनता भूखी-नंगी सो रही है लेकिन नेताओं को कई फिक्र नहीं। सभी पार्टियों के प्रमुख नेताओं की बात कर लें, हरेक नेता का बच्चा विदेशी स्कूल-कॉलेजों में शिक्षा अर्जित कर रहा है। लेकिन देश में स्कूलों की बात कर लें तो दो किस्म के स्कूल रह जाते हैं। एक स्कूल हैं सरकारी, जो ऐसे हैं जहां शिक्षा के नाम पर सिर्फ दीवारों पर टूटी-फूटी भाषा में लिखे स्लोगन ही बाकी हैं। दूसरे हैं प्राइवेट स्कूल, जिनकी भारी भरकम फीस को ढोना आम आदमी के बस की बात नहीं। पिछले दो सौ सालों से भारत में शिक्षा के क्षेत्र में कोई काम नहीं किया गया। क्यों नहीं इस तरफ कोई ध्यान नहीं देता? रोज़गार आदि तो बाद की बात है पहले शिक्षा ही नहीं मिलेगी तो कोई क्या कर पाएगा...। क्या यही है लोकतंत्र?
चुनाव लड़े जाते हैं घटिया मुद्दों पर... आह!!! यूपीए सरकार की एक उपलब्धि को गिनाता होर्डिंग देखा कल...। "मि़डे डे मील से करोड़ों बच्चों को मिल रहा है एक समय का भोजन.."
अरे क्या 60 साल पुराने लोकतंत्र में एक सरकार की यह उपलब्धि है क्या? इस विज्ञापन में एक स्वीकारोक्ति है अपनी विफलता की। देश की आधी आबादी अब भी भूखी है...। मुद्दे तो कई हैं लेकिन उन्हें उठाएगा कौन???
देश चलने को तो चल ही रहा है। छद्म आज़ादी से पहले अंग्रेज़ भी तो चला रहे थे। सत्ता हस्तांतरण के बाद कई बार चुनाव हुए... कई सरकारें बनीं... हमें पोस्टर नेता मिले... उनके नाम पर चल रही कई योजनाएं पाठ्य पुस्तकों के अध्याय के रूप में विरासत में मिलीं... लेकिन कोई फर्क नहीं। हर बार लोकतंत्र के महापर्व के नाम पर हमें ठगा जाता है। कभी कोई किसी नाम से आता है तो कभी कोई किस नाम से। पार्टी और विचारधारा सिर्फ बहाना है, इन लोगों की प्रजाति एक ही है और प्रकृति भी..। धन लूटना मकसद है इनका.... तभी तो करोड़ों रुपये की संपत्ति के मालिक हैं। मेरी एक विनती है, बस एक काम करो... सभी राजनेता और दल मिलकर एक हो जाओ या दो बड़े हिस्सों में बंट जाओ। फिर दोनों मिलकर समझौता कल लो बारी-बारी से राज करने का, पैसा कमाने का। हम आपसे कुछ नहीं पूछेंगे। कम से कम इन पैसों के लिए आप हमें धर्म, जाति आदि के नाम पर लड़वाएंगे तो नहीं... कम से कम हमारे पैसे को बर्बाद तो नहीं करेंगे। इतिहास रहा है हमारा रजवाड़ों के अधीन रहने का। कोई फर्क नहीं पड़ता, एक बार फिऱ रहना शुरु कर देंगे....। बस ये लोकतंत्र के नाम पर ड्रामा करना बंद करो....... और छोड़ दो हमें हमारे हाल पर....
सीएमस के सर्वे के मुताबिक:
कौन करेगा कितना खर्च :-चुनाव आयोग : 1300 करोड़ रु.
केंद्रीय व राज्य एजेंसियां : 700 करोड़ रु.
पार्टी फंड : 1650 करोड़ रु. जिनमें क्षेत्रीय दलों के उम्मीदवार : 1000 करोड़ रुपए खर्च करेंगे।
केंद्रीय स्तर के उम्मीदवार : 4350 करोड़ रु.
मतदाताओं को लुभाने में: 2500 करोड़ का खर्च होगा
कब कब हुआ कितना खर्च :-वर्ष 1991 आम चुनाव :- 1700 करोड़ रु
वर्ष 1996 आम चुनाव :- 2200 करोड़ रु
वर्ष 1998 आम चुनाव :- 3200 करोड़ रु
वर्ष 2004 आम चुनाव :- 4500 करोड़ रु
अब इतना पैसा फूंका भी जा रहा है तो क्यों? महज लोकतंत्र की परंपरा को जारी रखने के लिए? जी हां, चुनाव एक परंपरा बन गया है। इन चुनावों का जनता के लिए कोई महत्व नहीं बचा। इतना खर्च होने के बाद जिन लोगों पर जनप्रतिनिधी होने का ठप्पा लगता है, वो जी जान से नोट छापने में लग जाते हैं। आज़ादी से साठ साल बीत गए हैं लेकिन बुनियादी सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं हैं। जनता भूखी-नंगी सो रही है लेकिन नेताओं को कई फिक्र नहीं। सभी पार्टियों के प्रमुख नेताओं की बात कर लें, हरेक नेता का बच्चा विदेशी स्कूल-कॉलेजों में शिक्षा अर्जित कर रहा है। लेकिन देश में स्कूलों की बात कर लें तो दो किस्म के स्कूल रह जाते हैं। एक स्कूल हैं सरकारी, जो ऐसे हैं जहां शिक्षा के नाम पर सिर्फ दीवारों पर टूटी-फूटी भाषा में लिखे स्लोगन ही बाकी हैं। दूसरे हैं प्राइवेट स्कूल, जिनकी भारी भरकम फीस को ढोना आम आदमी के बस की बात नहीं। पिछले दो सौ सालों से भारत में शिक्षा के क्षेत्र में कोई काम नहीं किया गया। क्यों नहीं इस तरफ कोई ध्यान नहीं देता? रोज़गार आदि तो बाद की बात है पहले शिक्षा ही नहीं मिलेगी तो कोई क्या कर पाएगा...। क्या यही है लोकतंत्र?
चुनाव लड़े जाते हैं घटिया मुद्दों पर... आह!!! यूपीए सरकार की एक उपलब्धि को गिनाता होर्डिंग देखा कल...। "मि़डे डे मील से करोड़ों बच्चों को मिल रहा है एक समय का भोजन.."
अरे क्या 60 साल पुराने लोकतंत्र में एक सरकार की यह उपलब्धि है क्या? इस विज्ञापन में एक स्वीकारोक्ति है अपनी विफलता की। देश की आधी आबादी अब भी भूखी है...। मुद्दे तो कई हैं लेकिन उन्हें उठाएगा कौन???
देश चलने को तो चल ही रहा है। छद्म आज़ादी से पहले अंग्रेज़ भी तो चला रहे थे। सत्ता हस्तांतरण के बाद कई बार चुनाव हुए... कई सरकारें बनीं... हमें पोस्टर नेता मिले... उनके नाम पर चल रही कई योजनाएं पाठ्य पुस्तकों के अध्याय के रूप में विरासत में मिलीं... लेकिन कोई फर्क नहीं। हर बार लोकतंत्र के महापर्व के नाम पर हमें ठगा जाता है। कभी कोई किसी नाम से आता है तो कभी कोई किस नाम से। पार्टी और विचारधारा सिर्फ बहाना है, इन लोगों की प्रजाति एक ही है और प्रकृति भी..। धन लूटना मकसद है इनका.... तभी तो करोड़ों रुपये की संपत्ति के मालिक हैं। मेरी एक विनती है, बस एक काम करो... सभी राजनेता और दल मिलकर एक हो जाओ या दो बड़े हिस्सों में बंट जाओ। फिर दोनों मिलकर समझौता कल लो बारी-बारी से राज करने का, पैसा कमाने का। हम आपसे कुछ नहीं पूछेंगे। कम से कम इन पैसों के लिए आप हमें धर्म, जाति आदि के नाम पर लड़वाएंगे तो नहीं... कम से कम हमारे पैसे को बर्बाद तो नहीं करेंगे। इतिहास रहा है हमारा रजवाड़ों के अधीन रहने का। कोई फर्क नहीं पड़ता, एक बार फिऱ रहना शुरु कर देंगे....। बस ये लोकतंत्र के नाम पर ड्रामा करना बंद करो....... और छोड़ दो हमें हमारे हाल पर....
जो हकीकत में हैं मुद्दे यह उन्हीं की देन है।
कौन अपना ही गिरेबाँ झाँकता है आजकल।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
kaafi rangeen hai aapka blog. pasand aaya...
आखिर हमारे देश की मूर्ख जनता कब ये बात समझेगी कि ये नेता जितना चुनाव में खर्च कर रहे है..चुने जाने के बाद उस खर्च को सूत समेत वसूलेंगे भी तो.....
आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूं.