Aadarsh Rathore
नाच रहा है या फिर नचाया जा रहा है?
खुद बन रहा है या बनाया जा रहा है?

उसकी कोई मजबूरी तो नहीं?
हर नाचने वाला मूर्ख हो, ज़रूरी तो नहीं ?

कहीं उम्मीदें, तो कहीं लाचारी...
किसी को बेगारी, तो कभी बेकारी...
अशिक्षा और अज्ञानता
किंकर्तव्यविमूढ़ मानसिकता
काम न मिल पाने की चिंता



अच्छे-अच्छों को नचाती है,
रैलियों की भीड़ बढ़ाती है,
जोर-जोर से नारे लगवाती है,
तारीख कोई भी हो, अप्रैल फूल बना जाती है।

ये पंक्तियां मेरे वरिष्ठ सहयोगी अमित मिश्रा जी की हैं। उन्होंने देखो वह मूर्ख फिर नाच रहा है वाली कविता पर टिप्पणी की थी। दोनों रचनाओं को साथ में पढ़ा जाए तभी अर्थ स्पष्ट होगा।
5 Responses
  1. दोनों पढ़कर आनन्द उठाया.


  2. हम भी नाचने लगा. हमें तो भाता है. आभार.


  3. इंसान क्या नचाता है और क्या नाचता है
    वो भगवान ही है जो किसी को नट
    और किसी को कठपुतली बना जाता है
    बस पासा पलटने की देर है उस नट की डोर भी
    भगवान के ही हाथ है |


  4. मैने उसे पहले ही पढा था ... इसलिए तुरंत समझ में आ गया ... बहुत बढिया लिखा आपने।


  5. सही कहा आपने। आभार।