हिमाचल प्रदेश में दलित बच्चों के साथ दुर्व्यवहार की शर्मनाक घटना ने हिलाकर रख दिया है। अमर उजाला ने शिमला से एक खबर छापी है कि किसी स्कूल में दलित बच्चों को अलग बिठाकर मिड-डे मील खिलाया गया। यही नहीं, सामान्य वर्ग के पैरंट्स भी स्कूलों में पहुंच गए और उन्होंने अपने बच्चों को अलग बिठाकर खाना खिलाया। उनका कहना था कि स्कूल के बाहर भी यही परंपरा है। गैर-जिम्मेदार अमर उजाला ने भी स्कूल का नाम तो नहीं दिया, मगर बच्चों की तस्वीर छाप दी।
मैं इस घटना से सन्न हूं। ऐसा भेदभाव बेहद शर्मनाक है। मासूम बच्चों के दिमाग पर कितना बुरा असर पड़ा होगा इस घटना का। सामान्य वर्ग के बच्चों के बाल मन में यह भावना घर कर गई होगी कि वे श्रेष्ठ हैं और बाकियों के साथ नहीं बैठना चाहिए। वहीं दलित परिवारों के बच्चों के मासूम दिल पर इसका जो असर हुआ होगा, उसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते।
स्कूल में ऐसी घटिया, बांटने वाली और शर्मनाक घटना को होने देने से बेहतर होता कि मिड-डे मील परोसा ही नहीं जाता। स्कूल के स्टाफ को भी अड़ जाना जाना चाहिए था कि या तो बच्चे साथ खाएंगे या फिर किसी को मिड-डे मील नहीं परोसा जाएगा। विभाग को सूचित किया जाना चाहिए था।
अरे ओ नालायको! अपने घर में जो करते हो करो, इस सोच को अपने घर की चारदीवारी के बाहर मत आने दो। विद्या के मंदिरों को तो बख्श दो। कैसे समाज का निर्माण करना चाह रहे हो आप? बहिष्कार तो इन चू**यों का किया जाना चाहिए, जिनकी अक्ल पर पत्थर पड़ गया है। भाड़ में जाएं ऐसी अगड़ी जातियां, जिनकी सोच पिछड़ी हुई है।
जानकारी मिली है कि जिन बच्चों ने स्कूल छोड़ा है, उनके घरों में द्यो(देवता की पालकी) हैं। इनके पैरंट्स देव परम्परा का हवाला देकर कह रहे हैं कि हमारे बच्चे 'अछूतों' के साथ नहीं बैठेंगे। ये लोग मन्दिरों में भी दलितों को आने नहीं देते न ही द्यो के पास। अगर कोई दलित गलती से ऐसा कर दे तो उससे कहते हैं- सट बकरा, द्यो नराज़ होई गेया(देव नाराज़ हैं, प्रसन्न करने के लिए बकरे की बलि दो)।
दलित के घर से आया बकरा इनके लिए अछूत नहीं, उसे देखकर तो लार टपकती है। देव परम्परा के नाम पर सदियों से ये लोग ऐसा ही करते आए हैं। चौहार घाटी के देवताओं के कारिंदे भी ऐसा ही करते हैं। हमारे यहां देवताओं को बहुत माना जाता है। लोगों का विश्वास है कि आज के युग में भी वे इंसानों से अपने पुजारी के जरिए बात करते हैं। लोगों को हिदायतें देते हैं, समस्याओं को दूर करते हैं। मगर ऐसे देवता अगर वाकई इस घटिया परम्परा को बनाए रखने के हिमायती हैं, तो मैं उन्हें ख़ारिज करता हूं।
जब हॉस्पिटल में जाते हो तो डॉक्टर की जाति पूछते हो, कभी सोचा है कि आपके कपड़े, दवाइयां, बिस्किट और अन्य पैक्ड आइटम्स किसने बनाई हैं? होटेल, रेस्तरां में खाना बना और परोस रहा है? तब कहां जाती है छूत-अछूत वाली बात। असल बात यह है कि गांव-पड़ोस में ही हीरो बन सकते हैं आप। किसी को नीचा दिखाकर अपनी झूठी शान जो बनाए रखनी है।
काश! अपने देश में भी ऐसी व्यवस्था होती कि निकम्मे पैरंट्स से उनके बच्चे छीन लिए जाएं और सरकार खुद उनकी परवरिश करे। मगर अफ़सोस! यहां तो अभी भुखमरी और कुपोषण दूर करने के लिए 'मिड डे मील' खिलाया जा रहा है। इस बार घर जाऊंगा तो चौहार घाटी के बड़े देवताओं से 'पूछ' लेने की कोशिश करूंगा कि इस जातिवाद पर उनका क्या रुख है।