Aadarsh Rathore
पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. कलाम साहब ने कहा था कि स्वप्न वो नहीं हैं जिन्हें आप सोते हुए देखते हैं बल्कि स्वप्न वो हैं जो आपको सोने न दें। मुझे ये पंक्तियां बेहद पसंद हैं और अक्सर इन्हीं से प्रेरणा लेता हूं। सोता तो मैं हूं लेकिन अपने सपनों के बारे में सोचते हुए ही। हर रात सोने से पहले वही सपने आंखों में तैर रहे होते हैं और सुबह जगने पर भी सबसे पहल ज़हन में वही मासूम सपने आंखों के सामने होते हैं। ये सपने मासूम इसलिए हैं क्योंकि इनका जन्म तब हुआ था जब मैं भी मासूम था। आज से करीब 15-16 साल पहले इन सपनों ने मेरे मन में जन्म लिया था। तब से लेकर आज तक ये जवां तो हुए हैं लेकिन उसी मासूमियत के साथ। इन सपनों में कोई छल-कपट कोई स्वार्थ नहीं है, एकदम बालमन की उपज की तरह ही आज भी साफ हैं। मन में उठते अनेक इच्छाओं के तूफान के बीच भी ये स्वप्न खुद को टूटकर डूबने से बचाए हुए हैं। वक्त के साथ-साथ तो ये और भी मज़बूत हो चुके हैं...।

जिस दौर में अपनी समझ विकसित होना शुरू हुई थी, उस दौर में देश-दुनिया में कई कुछ घट रहा था। बात नब्बे के दशक की है, एक तरफ समाचार-पत्र वैज्ञानिक उपलब्धियों से भरे रहते थे वहीं हिंसा, उग्रवाद, युद्ध और भ्रष्टाचार भी अपने चरम पर था। ऐसे में इन चीज़ों ने मेरे मन में गहरा प्रभाव डाला। सोचता था कि आखिर इन सब नकारात्मक घटनाओं को कैसे खत्म किया जा सकता है। मैं बचपन में काफी शरारती हुआ करता था लेकिन किशोरावस्था तक पढ़ने-लिखने की आदत लगने के बाद काफी परिवर्तन आया। पढ़ने की शुरुआत कॉमिक्स से हुई। जब कहीं कोई अन्याय होता या फिर कुछ गलत होता तो सोचता कि काश मैं कॉमिक्स के सुपर हीरोज़ की तरह बनकर कुछ अच्छा करता। सुपर कमांडो ध्रुव और डोगा मेरे पसंदीदा पात्र थे। फिर वक्त गुज़रा और चीज़ों को और गहराई से समझने लगा। अब लगने लगा कि पूरा का पूरा तंत्र ही खराब है। जितना पढ़ा और देखा उससे महसूस किया कि आज़ादी के 50 साल बाद भी हमने कुछ खास हासिल नहीं किया है। न तो सामाजिक स्तर पर और न ही भौतिक स्तर पर। न तो हमारी सोच बदली है और न ही देश का ढांचागत विकास हुआ है। ये सब चीज़ें ख़ासा परेशान किया करती थीं। जब ऊपर से किसी नेता का नाम भ्रष्टाचार के मामले में सामने आता तो मैं और विचलित हो जाया करता। ऐसे में जाने क्यों बचपन से ही लगा कि राजनीति में जाना है। उस वक्त उम्र शायद 12-13 साल रही होगी।

बचपन में तो वैसे भी हर किसी के दिल में राष्ट्र के प्रति असीम प्यार भरा होता है लेकिन न जाने क्यों वक्त के साथ-साथ वो कम हो जाता है। शायद परिस्थितियां ही ऐसी बन जाती हैं कि जीवन-यापन की चिंता सर्वोपरि हो जाती है। ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ। दसवीं क्लास तक आते-आते हालात बदलने लगे और फिर मुझे तय करना था कि आगे क्या सब्जेक्ट लूं। फिर मुझे उन निबंधों (Essay) का ध्यान हो आया जो अंग्रेजी और हिन्दी की परीक्षाओं में 10 से 15 अंकों का मसाला हुआ करते थे। Whats Your Aim In Life. आपके जीवन का लक्ष्य..... इन निबंधों में जीवन के लक्ष्य को सीमित करके दिखाया जाता रहा। दरअसल उन निबंधों में भी हमें यही सिखाया जाता रहा कि My Aim Is To Become a Doctor or Engineer... यानि करियर ही जीवन का लक्ष्य है!!! वैसे भी हमारे देश में ज़रूरी हो जाता है कि हम जन्म से ही अपने बुढ़ापे को बेहतर बनाने की कोशिश शुरू कर दें। हां, ये बिल्कुल सच है। ये पढ़ाई-लिखाई क्यों? शिक्षित होने के लिेए नहीं है ये सब! ये सब इसलिए है ताकि हम अपना करियर बना सकें, एक अच्छी नौकरी मिले, परिवार बसाएं और फिर अपना बुढ़ापा आराम से काटें। क्या यही सब कुछ नहीं है हमारी जिंदगी? फिर ऐसे में राष्ट्र और दूसरे मुद्दों के बारे में सोचने के लिए वक्त ही कहां है? आज तो दौर ऐसा आ गया है कि अपने बुढ़ापे को सुखमय बनाने के लिए बच्चों को अढ़ाई साल की उम्र में ही एबीसीडी और दूसरे तामझाम सिखाए जाने लगे हैं। बहरहाल, दसवीं के बाद किस दिशा में जाऊं ये मैं तय नहीं कर पा रहा था। माता-पिता ने भी स्वतंत्रता दी थी कि मैं स्वेच्छा से ही अपनी रुचि का विषय चुनूं। दसवीं तक पढ़ाई में भी अच्छा था। फिर मन में विचार आया कि क्यों न डॉक्टर बनकर जनसेवा की जाए। दरअसल मैं उसी तरह के एक निबंध (essay) से बहुत प्रभावित था जिसमें डॉक्टर बनकर जनसेवा करने की बात कही गई थी। सो डॉक्टर बनने की ठान तो ली और इंटर में मेडिकल स्ट्रीम में पढ़ने लगा लेकिन जल्द ही यहां से भी मन ऊब गया। फिजिक्स और कैमिस्ट्री की गणित आधारित प्रॉबल्म्स मेरे लिए प्रॉबलम्स बन गईं। फिर जैसे-तैसे इंटर पास करने के बाद डॉक्टर बनने की बात छोड़ दी...।

मेरे मन में तो वही बात थी कि कैसे मैं देश के लिए कुछ करूं। इस विषमता और पिछड़ेपन के खिलाफ कुछ तो करूं। उम्र करीब 16 साल हो गई थी लेकिन सोच वही थी। अब राजनीति कोई ऐसा करियर तो है नहीं कि जिसके कोर्स में एडमिशन लेकर ट्रेनिंग ली जाए। स्थानीय निकायों को छोड़ दिया जाए तो इलेक्शन लड़ने के लिए भी 25 साल की उम्र चाहिए। ऐसे में आगे पढ़ाई तो करनी ही थी। फिर पिता जी ने भी मेरी रुचि को ध्यान में रखते हुए मीडिया में जाने की सलाह थी। मुझे भी विचार अच्छा लगा और मैंने दिल्ली में एक जन संचार के स्कूल में ग्रेजुएशन करने के मकसद से दाखिला ले लिया। लेकिन इस संस्थान में कई अनियमितताएं थीं। 3 साल ग्रेजुएशन के पूरे तो हुए लेकिन ये तीन साल प्रबंधन से उलझने और हकों की लड़ाई में ही बीत गए। इसके बाद नौकरी के लिए मारा-मारी शुरू हुई। जैसे-तैसे नौकरी भी मिली और पिछले 2 साल में वो सब कुछ किया जो मैं इस फील्ड में करना चाहता था। ईश्वर की कृपा ही है कि आज ऐसे कार्यक्रम तैयार करने का मौका मिला है जिनमें जनता की समस्याओं को उठाने और सरकार से सीधे सवाल किए जा रहे हैं। साथ ही जनता में जागरूकता लाने के लिए एक मंच मिला है। मीडिया में अपने करियर से भी मैं संतुष्ट हूं और साथ देश के लिए कुछ करने के अपने सपनों को कुछ हद पूरा होते देख खुश भी हूं। लेकिन फिर भी मुझे लगता है कि कहीं कुछ छूट रहा है। कहीं कुछ रह गया है। मेरी इच्छा है कि जब मैं मृत्युशैय्या पर होउं तो मुझे ये न लगे कि मैंने कुछ नहीं किया है। अगर कहीं कोई कमी रह गई तो मेरे अधूरे स्वप्न मुझे मौत के बाद भी सोने नहीं देगे।
5 Responses
  1. ein aapke sath hain sir aap zarur kuch aisa karenge ki peeche mudein to sir na jhukana pade...


  2. आईये जाने ..... मन ही मंदिर है !

    आचार्य जी


  3. अरे महाराज जो सोचा है वो होगा बस उस ओर आगे बढ़ते रहने की ज़रुरत है, जिस दिन ये सोच लिया कि बस बहुत हुआ उसी दिन पीछे चले जायेगे इसिलिए बढ़ते चलो हर कदम सार्थक अर्थ लिये होना चाहिये


  4. Neha Pathak Says:

    कभी हतोत्साहित मत होना और आगे बढ़ते रहना...


  5. bahut khoob
    kafi samay baad purane aadarsh ke lekh ko padh raha hu. ek ek vakya saargarbhit. sundar shaily.
    prabhu bhavnaon ki utkrisht abhivyakti prastut ki hai aapne...

    agali baar se main bhi pahadon me jakar likhunga...