रात के दो बज रहे हैं और नींद आंखों से कोसों दूर है। बालकॉनी में बैठा था, सोचा क्यों न मनोभावों को लिपिबद्ध कर दूं। दरअसल कई दिनों से दिमाग में कई चीज़ें घूम रही थीं। भविष्य की चिंता वर्तमान पर कुछ ज्यादा ही हावी थी। वैसे ये तो विश्वव्यापी समस्या है। सोच रहा था कि मैं किस दिशा में बढ़ रहा हूं? वर्तमान में जो कर रहा हूं क्या वो भविष्य को और बेहतर बनाएगा या कहीं गर्त में न ले जाए। पिछले दिनों से अपने प्रफेशन में जो उठापठक देखी है उससे ये सब सोचने पर विवश होना पड़ रहा है। ये फील्ड ही अनिश्चितताओं से भरी नज़र आ रही है। ऐसे में सोच रहा था कि क्या करूं? लेकिन अब जवाब मिल गया है। खुद को साबित करना है, समस्याएं कहां नहीं हैं ?
दूसरी चिंता स्वास्थ्य की थी। सही कहा गया है कि स्वस्थ तन में ही स्वस्थ आत्मा का वास होता है। पिछले कुछ दिनों से स्वास्थ्य कुछ गड़बड़ चल रहा है। पहले पहल सोचा कि पानी की समस्या है तो बोतलबंद पानी पीना शुरू किया। फिर भी समस्या हल नहीं हुई तो लगा कि खाने में गड़बड़ है। फिर बाहर से खाना बंद किया। अब भी समस्या का निदान नहीं हुआ तो लग रहा है कि दिल्ली की परिस्थितियां ही पक्ष में नहीं है। यहां पर रहकर शरीर का रक्षातंत्र ही कमज़ोर हो चुका है। ऐसे में किसी भी काम में मन नहीं लगता। मनोबल टूट सा रहा है।
तीसरी बात है घर से दूरी। काफी दिन घर से दूर रहना भी आपको कमज़ोर करता है। परिवार और जन्मभूमि से दूर रहना आसान नहीं है। नौकरी के फेर में फंसने पर बार-बार घर जाना संभव नहीं हो पाता। मुझे तो अपनी जन्मभूमि वैसे भी ज्यादा ही याद आती है। बचपन में जिस-जिस जगह गया हूं, जहां जाना मुझे पसंद है वो जगहें अक्सर सपने में भी आया करती हैं। मेरे खेत, बागीचा, घर के पास से बहती नदी, जंगल... सब कुछ।
इस महीने के अंत में अपनी जन्मभूमि भी हो आऊंगा और माता-पिता का आशीर्वाद भी ले आऊंगा। दिल्ली में स्थाई तौर पर नहीं रहना है मुझे। अंतत: अपनी जन्मभूमि ही जाना है। सपने देखना तो मैंने वहीं शुरू किया था। कई सपने संजोए हैं मैंने अपने कस्बे और गांव के लिए। उन्हें पूरा करना है, अपना कर्तव्य निभाना है। दिल्ली में तो आधार तैयार करना है उन सभी के लिए। यहां से हारकर वापस नहीं जाना है मुझे।
चौथी बात निजी जीवन में उतार-चढ़ाव। जिस उम्र में मैं हूं, उसमें अक्सर ऐसा ही होता है शायद। बहरहाल अब सब चीज़ों से उबर रहा हूं। हताशा के दौर को पीछे छोड़ना चाहता हूं। अब आगे बढ़ना चाहता हूं। वो कहते हैं न कि Either live your dreams or kill them. इन्ही पंक्तियों पर अमल करना चाहता हूं। सपने तो बहुत देखता हूं लेकिन उन्हें पूरा करने की दिशा में कुछ करता नहीं। दिवास्वप्नों के जाल से बाहर निकलकर अब सही दिशा में बढ़ना चाहता हूं। चाहता हूं कि जून माह से एकदम ट्रैक पर आ जाऊं। जिनती भी अनियमितताएं हैं उन्हें इसी महीने सुलझा लूं। सब कुछ व्यवस्थित कर लूं ताकि एक जून से मैं नई ऊर्जा के साथ अपने ख्वाबों को पूरा करूं। बिना रुके, बिना थके, बिना हारे... लगातार चलता रहूं और नए मार्ग प्रशस्त करूं। अपने नाम को सार्थक करूं...।
रात बहुत हो गई है। लैपटॉप पर मेरे पसंदीदा गाने चल रहे हैं और साथ ही ठंडी-ठंडी हवा भी बह रही है, अहा! कितना अद्भुत वातावरण है। मज़ा आ रहा है। दिल्ली में भी ऐसा मौसम होता है यक़ीन नहीं हो रहा। वैसे दिल्ली एक अच्छा शहर है। बस आधुनिकता ने इसे बर्बाद कर दिया है। प्रदूषण से मुक्ति पानी होगी दिल्ली को वरन् मुझ जैसे न जाने कितने लोगों की सेहत पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है।चलिए अब सोने जाता हूं, कल ऑफिस जाना है। अगर देर हो गई तो सारी बातें धरी की धरी रह जाएंगी।
कुछ गलत लिख दिया तो माफी चाहूंगा दोस्तो! जल्दबाज़ी में सब लिखा है। वर्तनी औप वाक्य विन्यास में गड़बड़ हो सकती है। बस भावनाओं को समझना... :)
आपका दिन शुभ रहे..
दूसरी चिंता स्वास्थ्य की थी। सही कहा गया है कि स्वस्थ तन में ही स्वस्थ आत्मा का वास होता है। पिछले कुछ दिनों से स्वास्थ्य कुछ गड़बड़ चल रहा है। पहले पहल सोचा कि पानी की समस्या है तो बोतलबंद पानी पीना शुरू किया। फिर भी समस्या हल नहीं हुई तो लगा कि खाने में गड़बड़ है। फिर बाहर से खाना बंद किया। अब भी समस्या का निदान नहीं हुआ तो लग रहा है कि दिल्ली की परिस्थितियां ही पक्ष में नहीं है। यहां पर रहकर शरीर का रक्षातंत्र ही कमज़ोर हो चुका है। ऐसे में किसी भी काम में मन नहीं लगता। मनोबल टूट सा रहा है।
तीसरी बात है घर से दूरी। काफी दिन घर से दूर रहना भी आपको कमज़ोर करता है। परिवार और जन्मभूमि से दूर रहना आसान नहीं है। नौकरी के फेर में फंसने पर बार-बार घर जाना संभव नहीं हो पाता। मुझे तो अपनी जन्मभूमि वैसे भी ज्यादा ही याद आती है। बचपन में जिस-जिस जगह गया हूं, जहां जाना मुझे पसंद है वो जगहें अक्सर सपने में भी आया करती हैं। मेरे खेत, बागीचा, घर के पास से बहती नदी, जंगल... सब कुछ।
इस महीने के अंत में अपनी जन्मभूमि भी हो आऊंगा और माता-पिता का आशीर्वाद भी ले आऊंगा। दिल्ली में स्थाई तौर पर नहीं रहना है मुझे। अंतत: अपनी जन्मभूमि ही जाना है। सपने देखना तो मैंने वहीं शुरू किया था। कई सपने संजोए हैं मैंने अपने कस्बे और गांव के लिए। उन्हें पूरा करना है, अपना कर्तव्य निभाना है। दिल्ली में तो आधार तैयार करना है उन सभी के लिए। यहां से हारकर वापस नहीं जाना है मुझे।
चौथी बात निजी जीवन में उतार-चढ़ाव। जिस उम्र में मैं हूं, उसमें अक्सर ऐसा ही होता है शायद। बहरहाल अब सब चीज़ों से उबर रहा हूं। हताशा के दौर को पीछे छोड़ना चाहता हूं। अब आगे बढ़ना चाहता हूं। वो कहते हैं न कि Either live your dreams or kill them. इन्ही पंक्तियों पर अमल करना चाहता हूं। सपने तो बहुत देखता हूं लेकिन उन्हें पूरा करने की दिशा में कुछ करता नहीं। दिवास्वप्नों के जाल से बाहर निकलकर अब सही दिशा में बढ़ना चाहता हूं। चाहता हूं कि जून माह से एकदम ट्रैक पर आ जाऊं। जिनती भी अनियमितताएं हैं उन्हें इसी महीने सुलझा लूं। सब कुछ व्यवस्थित कर लूं ताकि एक जून से मैं नई ऊर्जा के साथ अपने ख्वाबों को पूरा करूं। बिना रुके, बिना थके, बिना हारे... लगातार चलता रहूं और नए मार्ग प्रशस्त करूं। अपने नाम को सार्थक करूं...।
रात बहुत हो गई है। लैपटॉप पर मेरे पसंदीदा गाने चल रहे हैं और साथ ही ठंडी-ठंडी हवा भी बह रही है, अहा! कितना अद्भुत वातावरण है। मज़ा आ रहा है। दिल्ली में भी ऐसा मौसम होता है यक़ीन नहीं हो रहा। वैसे दिल्ली एक अच्छा शहर है। बस आधुनिकता ने इसे बर्बाद कर दिया है। प्रदूषण से मुक्ति पानी होगी दिल्ली को वरन् मुझ जैसे न जाने कितने लोगों की सेहत पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है।चलिए अब सोने जाता हूं, कल ऑफिस जाना है। अगर देर हो गई तो सारी बातें धरी की धरी रह जाएंगी।
कुछ गलत लिख दिया तो माफी चाहूंगा दोस्तो! जल्दबाज़ी में सब लिखा है। वर्तनी औप वाक्य विन्यास में गड़बड़ हो सकती है। बस भावनाओं को समझना... :)
आपका दिन शुभ रहे..
समस्या की पहचान उसके हल की और पहला कदम है. शुभकामनाएं!
ये फील्ड ही अनिश्चिचतताओं से भरी नज़र आ रही है...सभी फील्ड ऐसी ही है..बस हौसला बनाये रखिये..सारे सपने पूरे हो. अनेक शुभकामनाएँ.
"यहां से हारकर वापस नहीं जाना है मुझे।" बस इतना ही काफी है.. लग रहा है जैसे मैं ही बोल रहा हूँ..
अजी लडे बिना हार नही मानते, वेसे दिल्ली के हालात सही बताये आप ने, ओर अगर सपने पुरे करने है तो लडना पडता है अपने आप से, हलात से,हम सब पहले पहल ऎसा ही सोचते थे, अगर हिम्मत हार जाते तो....... तो भाई एक नयी सुबह की ओर देखो ओर हिम्मत से बढो बिना पीछे देखे
धन्यवाद :)
आप सभी का प्यार ही है जो मेरे अंदर नए उत्साह का संचार करता है।
जोश बिलिंग्स ने कहा था-
"डाक टिकट की तरह बनिए, मंजिल पर जब तक ना पहुच जाएँ उसी चीज़ पर जमे रहिये"
भविष्य के लिए शुभकामनाये!
आदर्श जी आपकी तरह ही कुछ मेरी भी स्थिति है पिछले कुछ दिनों से यही सवाल मेरे मन में भी आ रही है लेकिन अभी तक इस दिशा में कोई रास्ता नहीं दिखा लेकिन आपका लेख पढ़कर शायद अब ये सोचा कि अब शायद हमें भी अपने जिंदगी को एक नई उर्जा के साथ जीना है....
आप बहुत समझदार हैं,समस्या का खुद बा खुद निदान निकल लेंगे ...बस हिम्मत और धैर्य रखिये..एक बार घर हो आईये काफी साम्स्याये अपने आप दूर हो जायेंगी .
विकास पाण्डेय
www.vicharokadarpan.blogspot.com